SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ixix ) ङ्गन से, तुषित पाणिग्रहण से, निर्माणरति हास-परिहास से तथा परनिर्मितवशवर्तिन देखने मात्र से कामवासना सम्बन्धी परिदाह का विगम करते हैं। ___ इस प्रकार देवों को काम वासना को सन्तुष्टि में दोनों परम्पराओं में बहत कुछ समानताएं हैं और दोनों के अनुसार वैमानिक देवों तक काम वासना की उपस्थिति मानी गयी है। यद्यपि वैमानिक देवों के भेदों आदि को लेकर दोनों में मतभेद हैं / जहां बौद्ध परम्परा में केवल चार प्रकार के वैमानिक देव माने गये हैं वहां जैन परम्परा में श्वेताम्बरों के अनुसार 12 और दिगम्बरों के अनुसार 16 भेद माने गये हैं। जिस प्रकार जैन परम्परा अवेयक और अनुत्तर विमान में कामवासना की उपस्थिति नहीं मानती है, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा भी रूपावचर देवों में कामवासना की उपस्थिति नहीं मानती है। रूपधातु देवों के अन्तर्गत 17 भेद माने गये हैं इनमें अन्त के पांच शुद्धावासिक कहे गये हैं। जिस प्रकार जैनों में ग्रेवेयकों के तीन-तीन वर्गमाने गये हैं, उसी प्रकार बौद्धों में प्रथम ध्यान, द्वितीय ध्यान और तृतीय ध्यान में प्रत्येक के तीनतीन भेद किये गये हैं / यद्यपि चतुर्थ ध्यान में तीन भेदों के अतिरिक्त पांच शुद्धावासिक भी माने गये हैं। इस प्रकार नाम आदि को तो दोनों परम्पराओं में भिन्नता है परन्तु अवधारणा को दृष्टि से कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है। ___ रूपधातू देवों के शरीर की लम्बाई और आयष्य को लेकर दोनों परम्पराओं में कोई समानता नहीं है / किन्तु यह अवश्य देखा जाता है कि क्रमशः ऊपर के देवों की आयु नीचे के देवों की अपेक्षा अधिक होती है। लम्बाई के दष्टिकोण को लेकर दोनों में भिन्न दृष्टिकोण देखे जाते हैं, जैन परम्परा में क्रमशः ऊपर के देवों की लम्बाई कम होती जाती है वहां बौद्ध परम्परा में बढ़ती जाती है। हाँ ! दोनों में यह एक समानता है कि दोनों के अनुसार देव उपपादुक या औपपातिक ही होते हैं। बौद्ध परम्परा में देवों की उत्पत्ति माता-पिता की जंघाओं पर बताई गयी है वहाँ जेन परम्परा में प्रत्येक विमान में एक ही शय्या से उत्पत्ति मानी गयी है। देवों की इन अवधारणाओं में सबसे महत्त्वपूर्ण भिन्नता यह है कि बौद्ध परम्परा आरूप्यधातु देवों की उपस्थिति भी मानती है। उसके अनुसार
SR No.004356
Book TitleDevindatthao
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_devendrastava
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy