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________________ ( lxx ) ये देव अरूपी होते हैं। इनमें देवों या सत्त्वों की चार ध्यान भूमियां मानी . गयी हैं। 1. आकाशानन्त्यायतन 2. विज्ञानानन्त्यायतन .. 3. अकिंचनन्त्यायतन 4. नैवसंज्ञानासंज्ञायतन इन भूमियों के सुखों की इच्छा रखते हए यदि सत्त्व कुशल धर्म और ध्यान को सम्पन्न करता है तो वह अरूपलोक के सुखों का उपभोग करता है। इस अरूपलोक की चतुर्थ भूमि नैवसंज्ञानासंज्ञायतन तक ही सम्भव है, इसलिए इसे लोकाग्र कहा गया है / तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि यह स्थिति जैनों की अरूपी सिद्ध-आत्मा के समान ही है। जिस प्रकार सिद्धात्मा अनन्त सुख का भोग करती हुई लोकान में स्थित रहती है, उसी प्रकार यहाँ भो सत्त्व मात्र चेतना-प्रवाह रूप होकर लोकान पर निवास करता है। अन्तर मात्र यही है कि जहाँ जैनों के अनुसार सिद्ध गति में आत्मा की स्थिति अनन्तकाल तक की होती है, वहाँ बौद्धों में इसे एक सीमित काल तक ही माना है / यद्यपि बौद्धों की मान्यता यह है कि इस काल-स्थिति के समाप्त होने पर वह चित्तसन्तति निर्वाण को प्राप्त कर लेती है, उसे पुनः मनुष्यलोक में जन्म नहीं लेना होता है। अतः इसकी स्थिति जैनों के सर्वार्थसिद्ध विमान से भी भिन्न है / चूंकि बौद्ध परम्परा में निर्वाण का निर्वचन उपलब्ध नहीं है और न यह बताया गया है कि निर्वाण प्राप्त सत्त्व का क्या होता है ? इसलिए जेनों के सिद्धों की स्थिति के अनुरूप इसमें कोई अवधारणा उपलब्ध नहीं है। इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्परा में देवनिकाय की अवधारणा को लेकर अनेक बातों पर विचार किया गया है, जिनमें कुछ प्रश्नों पर परस्पर समानता और कुछ प्रश्नों पर असमानता पायी जाती है। प्रस्तुत भूमिका में हमने जैन परम्परा की अवधारणा को जहाँ देवेन्द्रस्तव के आधार पर वणित किया है, वहीं बौद्ध परम्परा के लिए हमने अभिधर्मकोश के लोक-निर्देश नामक तृतीय स्थान को आधार बनाया है।
SR No.004356
Book TitleDevindatthao
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_devendrastava
File Size12 MB
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