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________________ देवेन्द्रस्तव 73 301-302. जैसे कोई म्लेच्छ अनेक प्रकार के नगर गुणों को जानता हुआ भी उनका मिथ्या उपमाओं ( अपनी भाषा में अनुपलब्ध उपमाओं) के द्वारा कथन नहीं कर सकता है। इसी प्रकार सिद्धों का सुख भी अनुपम है, उसकी कोई उपमा नहीं है, फिर भी कुछ विशेष गों के द्वारा उसकी समानता को कहूँगा, ( उसे ) सुनो। 303. कोई पुरुष सबसे उत्कृष्ट भोजन को करके वैसे हो क्षुधा और 'पिपासा से मुक्त ( हो जाता है ) जैसे कि अमृत से तृप्त ( हुआ हो ) / 304. इसी प्रकार समस्त कालों में तप्त, अतुल, शाश्वत और अव्याबाध निर्वाण सुख को प्राप्त करके सिद्ध सुखो रहते हैं। 305. ( वे सिद्ध ) सिद्ध है, बुद्ध है, पारगत है, परम्परागत है, कर्मरूपी कवच से उन्मुक्त, अजर, अमर, और असंग ( हैं ) / 306.. जिन्होंने सभी दुःखों को दूर कर दिया है, (वे) जाति, जन्म, जरा-मरण के बन्धन से मुक्त, शाश्वत और अव्याबाध सुख को निरन्तर अनुभव करते हैं। .. .. [जिन देवों को ऋद्धि ] __ 307. समग्र देवों की और समग्र कालों की जो ऋद्धि है, उसका अनन्तगुना भो जिनेन्द्र की ऋद्धि के अनन्तवें के अनन्तवें भाग के बराबर भी नहीं है। 308. सम्पूर्ण वैभव व ऋद्धि से युक्त भवनपति, वाणव्यंतर ज्योतिषक और विमानवासी देव अरिहंतों को वन्दन करने वाले होते हैं।
SR No.004356
Book TitleDevindatthao
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_devendrastava
File Size12 MB
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