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________________ ( xxiv ) यह विशिष्ट शैली हमें उन सब समस्याओं से बचा लेती है और खगोलभूगोल सम्बन्धी विवरणों में जो विसंगति परिलक्षित होती है उसके लिए तीर्थंकर की वाणी उत्तरदायी नहीं बनती है। पुनः आज भी मूर्तिपूजक श्वेताम्बर समाज में एक वर्ग जिसे 'त्रिस्तु- . तिक' (तीन-थुई) के नाम से जाना जाता है, क्षेत्रपाल आदि देवों की स्तुति को षड्वश्यक की साधना में अनिवार्य नहीं मानता और उसे आगम विरुद्ध कहता है। शायद यही दृष्टि प्राचीनकाल में भी रही होगी और इसीलिए 'देवेन्द्रस्तव' को श्रावक के मुख से ही कहलवाया गया। 'देवेन्द्रस्तव' को यह शैली उसी युग में सम्भव थी जब अध्यात्म और नैतिकता प्रधान जैन धर्म में लौकिक मान्यताओं का प्रवेश तो हो रहा था, किन्तु उन्हें तीर्थंकर प्रणीत नहीं कहा जा रहा था। इस प्रकार भाषा-शैली की दृष्टि से इसकी विशेषताओं को देखते हुए इसे ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दो का ग्रन्थ मानने में विद्वानों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। ___ यदि हम विषय-वस्तु की दृष्टि से 'देवेन्द्रस्तव' का.काल निर्धारण करना चाहें तो हमें यह विचार करना होगा कि 'देवेन्द्रस्तव' की विषयवस्तु क्या है, वह किस काल की हो सकती है तथावह किन-किन आगम ग्रन्थों में पायी जाती है ? सर्वप्रथम यह तो स्पष्ट ही है कि 'देवेन्द्रस्तव' में भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक इन चार प्रकार के देवों, उनके इन्द्रों, निवास-क्षेत्रों, भवनों, निवासक्षेत्र एवं भवनों के आकार-प्रकारों तथा इन देवों और इन्द्रों की आय, शक्ति, ज्ञान-सामर्थ्य आदि का विवेचन किया गया है। साथ ही साथ ज्योतिष्क देवों की गति सम्बन्धी चर्चा भी है जो सूर्यप्रज्ञप्ति के अनुरूप ही है / सूर्यप्रज्ञप्ति की ज्योतिष्क सम्बन्धी मान्यताओं के आधार पर विद्वानों ने उसका काल ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दी के आसपास का माना है। चंकि 'देवेन्द्रस्तव' में भी वे ही मान्यताएं प्रस्तुत की गई हैं, अतः वह भी उसका समकालीन या कुछ परवर्ती माना जा सकता है। हमें 'देवेन्द्रस्तव' की अधिकांश गाथाएँ अर्थात् तीन सौ में से लगभग आधी गाथाएं सूर्यप्रज्ञप्ति, स्थानांग, प्रज्ञापना, समवायांग आदि में यथावत् रूप से अथवा किञ्चित् पाठान्तरों के साथ मिली हैं, जिसका विस्तृत तुलनात्मक विवरण हमने इसी प्रस्तावना के अन्त में दिया है। गाथाओं की यह समानता हमारे सामने दो प्रतिपत्तियाँ प्रस्तुत करती हैं, या तो 'देवेन्द्रस्तव' से ये गाथाएँ इन आगम ग्रन्थों में गयी हों या फिर
SR No.004356
Book TitleDevindatthao
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhash Kothari, Suresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year1988
Total Pages230
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_devendrastava
File Size12 MB
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