________________ ( lxvii ) कि बौद्धों के अनुसार ये देव बिना मनुष्य-लोक में जन्म लिये आयु पूर्ण होने पर निर्वाण प्राप्त कर लेते है, जबकि जैनों के अनुसार सिद्ध आत्माएं निर्वाण प्राप्त ही हैं। जैनों ने जिसे व्यंतरदेव कहा है बौद्ध परम्परा में उन्हें प्रेत कहा गया है। जैनों के अनुसार ये असुरनिकाय और व्यंतरदेव अधोलोक में निवास करते हैं उसी प्रकार बौद्धों के अनुसार भी प्रेत अधोलोक में ही निवास करते हैं। जैनों ने जहां इस निकाय के विविध इन्द्रों की कल्पना की है वहां बौद्ध परम्परा में प्रेतों का राजा यम माना गया है जिसका निवास स्थान जम्बूद्वीप से पाँच सौ योजन नीचे माना गया है। जैन परम्परा में भवनपति देवों का जो उल्लेख है वैसा उल्लेख बौद्ध परम्परा में नहीं मिलता है, किन्तु बौद्ध परम्परा में कामधातु देवों के मुख्य रूप से भूमिवासी और विमानवासी ऐसे दो विभाग किये गये हैं। भूमिवासी देवों को कल्पना जैनियों के भवनवासी देवों के निकट तो है परन्तु मुख्य अन्तर यह है कि भवनपति देवों के कुछ आवास अधोलोक में माने गये हैं वहां बौद्धों के अनुसार भूमिवासी देवों के आवास सुमेरु की श्रेणियों पर माने गये हैं। बौद्धों में भूमिवासी देवों के मुख्य रूप से चातुर्माहाराजिक और त्रायस्त्रिशक दो प्रकार किये गये हैं पुनः चातुर्माहाराजिक देवों के करीट पानी, मालाधर, सदामद तथा चार माहरा जक ये चार प्रकार किये गये हैं / भूमिवासी देवों का दूसरा वर्ग त्रायस्त्रिशक देव है / ये तैंतीस देव अपने पार्षदों सहित सुमेरुपर्वत पर निवास करते हैं। बौद्ध विचारकों के अनुसार ये त्रायस्त्रिशक देव सुमेरुशिखर, जो 80 हजार योजन विस्तृत है उन पर और इसकी उपदिशाओं में पाँच सौ योजन ऊंचे विशाल कूट हैं जिनमें व्रजवाणी नामक यक्ष निवास करते हैं। शिखर के मध्य में देवराज शक्र की सुदर्शन नामक राजधानी बताई गयी है जहाँ शक्र का 250 योजन विस्तृत वैजयन्त नामक भवन बताया गया है। हम देखते हैं कि जहाँ जैनों के अनुसार शक और त्रायस्त्रिंशक को विमानवासी देव माना गया है वहाँ बौद्ध परम्परा उन्हें भूमिवासी देव मानती है। पुनः बौद्धों के अनुसार चातुर्माहाराजिक देवों का ही एक वर्ग सूर्य,चन्द्र और तारा विमानों में निवास करता है जबकि जैन परम्परा में ज्योतिष्क देवों का एक स्वतन्त्र वर्ग माना गया है / यद्यपि बौद्ध परम्परा में चन्द्र, सूर्य