________________ ( xxvil ) अतः इस आगमिक मान्यता की उपस्थिति से 'देवेन्द्रस्तव' परवर्ती काल का नहीं माना जा सकता है, क्योंकि आगमिक काल में यह अवधारणा तो अस्तित्व में आ ही गयी थी। पुनः सिद्धों का विवरण देने वाली सभी गाथाएँ प्रज्ञापना और देविदत्थओ में समान रूप से मिलती हैं, केवल यही एक मात्र गाथा है, जो उसमें नहीं मिलती है, अतः प्रज्ञापना में लिये जाने के पूर्व भी यह गाथा देविदत्थओ में नहीं थी। अतः यह बाद में प्रक्षिप्त की गई होगी। पुनः देवताओं के संदर्भ में जो विस्तृत चर्चा इस ग्रन्थ में है उनमें से कुछ विवरण सम्बन्धी ऐसी बातें भी हैं जो लगभग इसी काल के हिन्दू व बौद्ध ग्रन्थों में भी पायी जाती है, जिन पर इसके विषय-वस्तु की तुलना के प्रसंग में विचार करेंगे। विषय-वस्तु:--'देवेन्द्रस्तव' में बत्तीस इन्द्रों का क्रमशः विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है। इसमें किसी संस्करण में 307 व किसी संस्करण में 311 गाथाएं प्राप्त होती हैं। ग्रन्थ का प्रारम्भ ऋषभ से लेकर महावीर तक की स्तुति से किया गया है। तत्पश्चात् किसी श्रावक की पत्नी अपने पति से बत्तीस देवेन्द्रों के विषय में प्रश्न पूछती है कि ये बत्तीस देवेन्द्र कौन हैं ? कहाँ रहते हैं ? उनके भवन कितने हैं ? और उनका स्वरूप क्या है ? (गाथा 1 से 11 तक) प्रत्युत्तर में वह श्रावक भवनपतियों, वाणव्यंतरों ज्योतिष्कों, वैमानिकों एवं अन्त में सिद्धों का वर्णन करता है। अब हम क्रमशः इनका विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। सर्वप्रथम 20 भवनपतियों का जो वर्णन किया गया है उसे निम्नांकित सारिणी से समझा जा सकता है ( गाथा 15 से 50 ) / देखिये-सारणी सं० 1 / वाणव्यंतर-पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गन्धर्व ये आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देव कहे गये हैं। इनके काल, महाकाल, सुरूप, प्रतिरूप, पूर्णभद्र, माणिभद्र, भीम, महाभीम, किन्नर, किंपुरुष, सत्पुरुष, महापुरुष, अतिकाय, महाकाय, गीतरति, गीतयश आदि सोलह इन्द्र कहे गये हैं। ये देव ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक किसी भी लोक में उत्पन्न हो सकते हैं। इनकी कम से कम आयु दस हजार वर्ष और अधिकतम आयु एक पल्योपम कही गयी है / (गाथा 67 से 80) ज्योतिषिक-चन्द्र, सर्य, तारागण, नक्षत्र और ग्रह ये पांच ज्योतिषिक देव कहे गये हैं। यहीं पर चन्द्र, सूर्य का विस्तार, इनकी संख्या, उनके विमान और आयाम-विष्कम्भ का वर्णन किया गया है / (गाथा 81 से 93)