________________ देवेन्द्रस्तव 67 276. वहाँ पर सैकड़ों मणियों से जटित, बहुत प्रकार के आसन, शय्याएँ, सुशोभित विस्तृत वस्त्र, रत्नमय मालायें और अलंकार ( होते हैं)। [सिद्धशिला पृथ्वी के स्थान, संस्थान और प्रमाण ] 277. सर्वार्थसिद्ध विमान के सबसे ऊँचे स्तूप के अन्त से बारह योजन ऊपर इषत्प्राग्भारा पृथ्वी ( होती है ) / 278. ( जिनेन्द्रों के द्वारा वह पृथ्वी ) निर्मल जल कण, हिम, गो दुग्ध, समुद्र के फेन के समान वर्ण वाली तथा उत्ताण ( उलटे किये हुए) छत्र के आकार में स्थित कही गयी है / 279. ( इषत्प्राग्भारा पृथ्वी को ) पैतालिस लाख योजन लम्बाईचौडाई होती है और उससे तीन गुना कुछ अधिक परिधि होती है, . ( इस प्रकार ) जानना चाहिए। 280. ( यह परिधि ) एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास योजन ( से कुछ अधिक है ) / - 281. ( वह पृथ्वी ) मध्य भाग में आठ योजन मोटाई वाली है, (यह क्रमशः कम होते-होते) मक्खी के पंख से भी पतली (हो जाती है)। 282. वह पृथ्वी शंख, श्वेत रत्न तथा अर्जुन सुवर्ण के समान ( श्वेत स्वर्ण के समान ) वर्ण वाली तथा उलटे छत्र के आकार वाली (है)। [सिद्धों के स्थान, संस्थान, अवगाहना और स्पर्श] 283. सिद्धशिला के उपर एक योजन (के बाद) में लोक का अन्त (होता है)। उस (एक योजन) के उपर के सोलहवें भाग में सिद्धस्थान अवस्थित (है)।