________________ ( xxil ) विचार करना होगा। जहाँ तक 'देवेन्द्रस्तव' की भाषा का प्रश्न है, यह सत्य है कि उस पर महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव परिलक्षित होता है, किन्तु महाराष्ट्री का ऐसा प्रभाव तो हमें ऋषिभाषित जैसे प्राचीनस्तर के प्रकोर्णक पर तथा आचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), उत्तराध्ययन और दशवेकालिक जैसे प्राचीन आगम ग्रन्थों में भी मिलता है। वास्तविकता यह है कि श्रत के शताब्दियों तक मौखिक बने रहने के कारण इस प्रकार के भाषिक परिवर्तन उसमें आ ही गये हैं। साथ ही अभी भी कुछ प्राचीन प्रतों में प्राचीन अर्धमागधी के पाठान्तर उपलब्ध हो जाते हैं। अतः महाराष्ट्रो प्राकृत के प्रभाव के आधार पर इसे परवर्ती काल की रचना नहीं कहा जा सकता है। पुनः प्रश्नव्याकरण, आदि कुछ आगमों की अपेक्षा इसकी भाषा में प्राचीनता के तत्त्व परिलक्षित होते हैं / शैली-यदि हम शैली की दृष्टि से विचार करें तो 'देवेन्द्रस्तव' की शैली समस्त आगमग्रन्थों से भिन्न है। आगम ग्रन्थों की प्राचीन शैली में निम्न वाक्यांश से प्रारम्भ किया जाता है "सुयं मे आउसं! तेण भगवया एवमक्खायं--" 'हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है उन भगवान ने यह कहा है। दूसरे कुछ परवर्ती स्तर के आगमों में प्रारम्भ में आयं सुधर्मा से जम्ब जिज्ञासा प्रकट करते हैं और आर्य सुधर्मा, गौतम और महावीर के संवाद के रूप में आगम की विषय-वस्तु का विवेचन करते हैं। स्तुतिपर्वक गाथाओं के पश्चात् आगमों का विवरण प्रस्तुत करने की शैली मुख्यतः उन आगमों में देखी जाती है जिनके रचयिता कोई स्थविर या आचार्य माने जाते हैं। नन्दी जैसे परवर्ती अर्द्धमागधी आगम ग्रन्थों में तथा शौरसेनी आगम साहित्य के ग्रन्थों में मुख्यतया इस प्रकार की शैली परिलक्षित होती है। ___ 'देवेन्द्रस्तव' की वर्णन शैली भी इसी प्रकार की है। किन्तु इस ग्रन्थ की एक विशेषता यह है कि इसमें महावीर की स्तुति के पश्चात् समग्र विषय-वस्तु का विवेचन श्राविका की जिज्ञासा के समाधान के रूप में श्रावक द्वारा करवाया गया है। अतः इसमें जिज्ञासा समाधानपरक और स्तुतिपरक दोनों ही शैलियों का मिश्रण देखा जाता है। जिज्ञासा-शैली की दृष्टि से सम्भवतः यही एक मात्र ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें विषयवस्तु का विवरण तीर्थंकर के मुख से अथवा आर्य सुधर्मा या गौतम के मुख से न कहलवाकर श्रावक के मुख से कहलवाया गया है /