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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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IDEARNE
भगवान महावीर
मनोहर उपदेश
संयोजक
स्व. आचार्य सल्माट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज के
হিহ। उत्कल केसरी पं० रत्न प्रवक्ता श्री मनोहर मुनिजी 'कुसुद'
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पुस्तक का नाम-भगवान महावीर के मनोहर उपदेश
संयोजक-मनोहर मुनि 'कुमुद' प्रेरक-श्री विजय मुनि जी 'संगीतप्रेमी' पद्यानुवाद-मनोहर मुनि जी 'कुमुद कम्पोज-किरण प्रकाशन; ४-८-४९४ गौलीगुड़ा, हैदराबाद
प्रिटिंग-रघु मोहन प्रिण्टर्स, इडनवाग, हैदरावाद
प्रकाशक-श्रीमती लीलम प्राणलाल संघवी चैरिटेवल ट्रस्ट
प्रथम आवृत्ति-दो हजार २०००
वीर निर्वाण सं०-पच्चीस सौ दो २५०२
मूल्य-सदुपयोग
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प्रकाशकीय
पूज्य महाराज श्री जी का यह गाथा-चयन मुझे बहुत ही सुन्दर लगा है। महाराज श्री जी ने इस संग्रह का पद्यानुवाद करके इसे और भी सुन्दर, सुगम, सुवोध तथा हृदयाकर्षक बना दिया है। प्रत्येक मुमुक्षु के लिए यह पठनीय है। इसके प्रकाशन में मैं निमित्त मात्र बना हूँ। यह मेरा परम सौभाग्य है। श्रीमती लीलम प्राणलाल संघवी की मंगल स्मृति में यह प्रकाशन उपस्थित किया जा रह है। जन-मन इससे लाभान्वित होगा ! ऐसी आशा है ।
प्राणलाल संघवी
अध्यक्ष स्थानकवासी जैन संघ.
हैदरावाद
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जिसने जगति में बिखराया,
. सद्गुण का सुवास ! ... इस धरती पर रहा सदा ही,
स्वर्ग उसी के पास ॥
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सौहार्द, सेवा और करुणा
. की प्रतिमा एक साकार ।
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'इस धरती से ऊपर जिसका,
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स्वर्गलोक से प्यार ! !
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श्रीमती लीलम प्राणलाल संघवी
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समर्पित
करता हूँ
अहिंसा
और
सत्य
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पुजारी
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प्रत्येक नर और नारी
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कर कमलों
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मनोहर मुनि 'कुमुद'
४३
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आगम वाटिका के सुमन,
मैं सुकुमार लाया हूँ ।
जीवन के लिए मैं इक,
नया शृंगार लाया हूँ ||
पदों में बान्ध कर गौतम
के दिल का प्यार लाया हूँ
1
विश्व के वास्ते मैं इक,
नया उपहार लाया हूँ !!
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अहिंसा व शान्ति के अवतार तीर्थकर भगवान महावीर
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भगवान महावीर
___ मनोहर मुनि 'कुमुद
। भगवान महावीर का जन्म ईसवी सन् से ५९९ वर्ष पूर्व 'विहार के वैशाली महानगर के उपनगर क्षत्रियकुण्ड ग्राम में हुआ था । आप के पिता का नाम सिद्धार्थ था । आप वैशाली गणतन्त्र के शासक राजा थे। भगवान महावीर की माता का · का नाम विश्ला था। जन्म से पहले महावीर की माता ने १४ महास्वप्न देखे थे। यह एक प्रकार से धरती पर एक महान् आत्मा के अवतरण की सूचना थी । महावीर का जन्म नाम वर्धमान था। आपके जन्म लेते ही राज्य में सब तरह की वृद्धि तथा उन्नति होने लगी। इसलिए माता-पिता ने आपका नाम वर्धमान रखा । आपके चाचा का नाम सुपार्श्व था । आपके एक बड़े भाई नन्दिवर्धन थे। जन्म से ही बड़े संयत, मीन तथा गम्भीर रहते थे। आपका मन रंग भवनों के भोग विलास में विल्कुल नहीं लगता था। आप महल को एक पिंजरा समझते थे और अपने को उस पिंजरे का एक बन्दी पक्षी मानते थे। आप इस मोह-पिंजरे से निकलने के लिए सदैव आतुर रहते थे। आपके जीवन के अवाईन वसंत इसी चिन्तन में गुजर गये । अनिच्छा होते हुए भी केवल
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अपने प्रिय माता-पिता के मनः सन्तोष के लिए उन्हों में विवाह को स्वीकार किया! किन्तु विवाह उनके लिए वन्धन नहीं बना। उन की पत्नी का नाम यशोदा था। एक पुत्री के आप पिता भी वने। जिसका नाम प्रियदर्शना था। अठ्ठाईस वर्ष की उमर में आपके माता-पिता स्वर्ग सिधार गये। आप घर छोड़ने को तैयार हो गये। बड़े भाई नन्दिवर्धन ने उन्हें फिर रोका । किसी तरह २ वर्ष के लिए वे फिर रुक गये। आखिर ३० वर्ष के भरपूर यौवन में वे घर छोड़ कर सन्यासी (साधु) हो गये। उन्हों ने शरीर का वस्त्र तक भी अपने पास नहीं रखा। साढ़े बारह वर्ष तक घोर तप किया। दुष्टों और राक्षसों ने आप को भयंकर कष्ट दिये। किन्तु आप अपने संयम-पथ पर हिमालय की तरह अडिग रहे । इसी से आप महावीर के नाम से प्रख्यात हुए। अपने इतने लम्बे तपस्वी जीवन में आप प्रायः मौन ही रहे और केवल ३४९ दिन ही भोजन ग्रहण किया। आपका अधिकांश समय ध्यान और समाधि में ही बीतता था। एक दिन आप ऋजुवालिका नदी के किनारे शालिवृक्ष की शीतल छाँह तले गोदुहासन की मुद्रा में आत्मध्यान में लीन बैठे थे कि आपके अन्तःकरण में ईश्वरीय आलोक हुआ । आपने ब्रह्मज्ञान को पा लिया । आप केवलज्ञानी बन गये । आप आंखें वन्द कर के भी अनन्त जगत को हस्त-रेखा की तरह अपनी आत्मा के दिव्य ज्ञान से देखने लगे । आप सर्वज्ञ और सर्वदर्शी बन गये । इस के बाद आप ने अपना प्रचार आरम्भ किया। उस समय भारत के धामिक उपवन में पतझड़ था। चारों ओर कांटे ही कांटे
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विख़र रहे थे। हिंसा का जोर बढ़ रहा था। हिंसक यज्ञों में निरीह. पशुओं का रक्त वह रहा था । शूद्रों के साथ पशुओं जैसा व्यवहार हो रहा था । मानव समाज का भाग्य धर्म के ठेकेदारों के हाथ में था । नारी को कोई भी स्वतन्त्रता नहीं थी। वह विलास का एक खिलौना समझी जाती थी। भगवान महावीर की करुणाशील आत्मा यह सव अत्याचार और पाखण्ड को देख न सकी। भगवान महावीर की आँखें छलक उठी और हृदय रो पड़ा । उन्होंने शोषण, अत्याचार तथा पशवलि के विरोध में अपना आन्दोलन आरम्भ किया। भारत के कोने कोने में पद-यात्रा करके आपने अपने सर्वप्रिय सिद्धान्त 'अहिंसा का प्रचार किया। हिंसा के विरुद्ध आपका अभियान ३० वर्ष तक चलता रहा । बड़े बड़े धुरन्धर विद्वानों को भी आपने अपनी मोहिनी शक्ति से मोहित कर दिया और वे आपके शिष्य बन गये । आप ने अपने जीवन में चोदह हजार पुरुषों को दीक्षित करके साधु बनाया और ३६ हजार वहनों को संयम का व्रत देकर साध्वी बना दिया। लाखों लोगों को अहिंसा आदि अणुव्रतों की प्रतिज्ञा दे कर उन्हें पवित्र एवं नैतिक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। भगवान महावीर ने ऐसे सद्गृहस्थ को श्रावक और सद् गहिणी को श्राविका कहा । इस प्रकार साधु-साध्वी, श्रावक और श्राविका के रूप में उन्हों ने एक विशाल संघ तैयार किया। इस संघ को तीर्थ कहा जाता है। तीर्थ के संस्थापक को तीर्थकर कहते हैं। भगवान महावीर जैन धर्म के चौवीसवें तीथर्कर थे। बहत्तर वर्ष की आयु में पावापुरी में कार्तिक
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अमावस्या की मध्य रात्रि को उन्होंने निर्वाण पद प्राप्त किया । बेशक अहिंसा का सूर्य अस्त हो गया। किन्तु याद रखिये कि आकाश का सूर्य अस्त होने पर अपने पीछे अन्धकार छोड़ जाता है किन्तु महापुरुष दुनिया से अस्त होकर भी अपने पीछे अपने सिद्धान्तों का प्रकाश छोड़ जाता है। हमें चाहिए कि भगवान महावीर के उच्चतम जीवन सिद्धान्तों के प्रकाश में अपने लिए सुख और शान्ति के मार्ग की खोज करें । वस्तुतः तभी हमारे आयोजन सफलता से । अलंकृत होंगे।
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--
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निर्वाण कैसे ? ...,
है
ज्ञान के आलोक में
मोह दूर भागता है। जीवन में परम सुखकर
वैराग्य जागता है ।
वैराग्य से ही भक्ति में
प्रवीण होता है । आत्मा निज सुख में .
फिर लीन होता है ॥
ज्ञान के सरोवर में जव - मात्म - स्नान होता है। दुष, विषाद, शोक का
अवसान होता है ।
उ
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'मन, विमल, शान्त, शुभ्र
जब परिपूत होता है । आत्मा में मानन्द सब
उद्भूत होता है ॥
कर्म से मुक्त जीव
केवल ज्ञान पाता है। महावीर की तरह
वह निर्वाण पाता है।
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महापुरुष और उनका ज्ञान
सब के लिए होता है
महापुरुष किसी एक जाति, पंय, सम्प्रदाय व समाज के नहीं होते । वे चान्द और सूर्य की तरह सव के होते हैं ।
अन्धकारावृत्त-पथ पर अपने हाथ में दीपंक ले कर चलने वाला पथिक दीपक के विखरते हुए प्रकाश को अपने ही पगों तक कभी सीमित नहीं कर सकता। उस समय उस मार्ग से गुजरने वाला कोई भी पथिक उस आलोक में अपनी राह खोज सकता है।
ठीक इसी तरह महापुरुपों के ज्ञान-दीप से कोई भी व्यक्ति अपने जीवन-पथ को आलोकित कर सकता है।
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महापुरुषों का एक एक विचार हेनूर हीरे के मूल्य से अधिक
मूल्यवान होता है - यह ऐसे ही अनमोल हीरों की
एक तिजोरी हैं। इसे सम्भाल कर रखिये
. और .... सूत्र ज्ञान की अविनय
तथा ... आशातना के पाप से बचिये
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भगवान महावीर के
पाँचों कल्याणकों के
पावन दिनों में
इस पुस्तक
का
पाठ व स्वाध्याय
करना
कदापि
मत भूलिये
--::
उ
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पाँच कल्याणकों
के
शुभ दिन च्यवन-आषाढ़ सुदि ६ जन्म-चैत्र सुदि १३ दीक्षा-मगसिर वदि १० केवलज्ञान-वैशाख सुदि १० परिनिर्वाण-कात्तिक अमावस्या
दीपावली की मध्य रात्रि
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यह सब स्वाध्याय है धर्मवाणी को
१. स्वयं पढ़ना २. दूसरे को पढ़ाना ३. एकाग्र मन से सुनना . ४. दूसरे को प्रेम से सुनाना ५. पढ़ने व सुनने के लिए प्रेरणा देना . ६. एकाग्रचित्त हो पाठ करना ७. पढ़े व सुने हुए पर चिन्तन करना ८. आत्म-निरीक्षण करना
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इसे कण्ठस्थ करलें
१. स्कूल व कालेज के छात्र व छात्राएँ । २. जैन शिक्षा निकेतन के धर्मप्रिय ३. नवदीक्षित साधु व साध्वी । ४. धर्मोपदेशक व प्रचारक । ५. जैनागमों के अध्ययन के इच्छुक । ६. श्रावक और श्राविकाएँ। १७. अहिंसा और सत्य के जिज्ञास। ८. आत्म-ज्ञान के पिपासु ९. अध्यापक व प्राध्यापक १०. पत्र व पत्रिकाओं के सम्पादक ११. प्राकृत भाषा के रसिक । १२. कवि व संगीतज्ञ । १३. अन्य कोई भी।
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इसे आप अवश्य रखें
१. घर की मेज पर २. दुकान में ३. अपने हाथ के पर्स में ४. धर्म स्थान में ५. सामायिक के आसन में ६. कार्यालय में
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यह पुस्तक आप का सबसे बड़ा
१. मित्र है ।
२. बन्धु है ।
३. हितैषी है ।
४. शिक्षक है ।
५. मार्ग-दर्शक है ।
५. सहचर है । ७. गुरु है ।
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यह पुस्तक
है
आनन्द का
नन्दनवन है सुख का
कल्पवृक्ष है ज्ञान की
गंगा है। सुसंस्कार की
मंजूषा है शान्ति का
अमृतकलश है सिद्धि की
कामधेनु है मोह- मूर्छा के लिए
संजीवनी है आध्यात्मिकता का
नन्दिघोष है
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एक ललित अभिमत
परम श्रद्धेय श्री मनोहर मुनि जी 'कुमुद' इससे पूर्व भगवान महावीर के मनोहर उपदेशों का संग्रह तथा अर्थ प्रस्तुत कर चुके हैं । आपका गद्य भी अपनी काव्यमय, सरस एवं हृदयस्पर्शी शैली के कारण पद्य का प्रभाव रखता है। जब गद्य का ही ऐसा प्रभाव है, तव पद्य का तो कहना ही क्या ?
इस ग्रन्थ में आपके सन्त रूप के साथ साथ कविरूप को देखकर पाठक प्रसन्नता और धन्यता का अनुभव करता है। उपदेश के वचनामृत कविता के माध्यम को अपनाकर विशेष प्रभावोत्पादक हो जाते हैं, यह एक निर्विवाद तथ्य और इतिहास-प्रमाणित सत्य है ।
भगवान महावीर के उपदेशों का पाथेय लेकर जीवन पथ पर चलने वाला पथिक सदैव सुखी एवं निश्चिन्त रह सकता है। भगवान महावीर का निर्वाण बहत्तर वर्ष में हुआ था, इसलिए पूज्यवर्य श्री मनोहर मुनि जी 'कुमुद ने इस संग्रह में केवल वहत्तर श्रेष्ठ उपदेशों का चयन हमारे कल्याण के लिए प्रस्तुत किया है।
आपकी शैली की सबसे बड़ी विशेपता है निराडंबरी भापा जिसके कारण इन पद्यात्मक उपदेशों को कण्ठस्थ कर
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लेना किसी के लिए भी सरल और सहज हो सकता है। इस आयोजन की उपादेयता भी इसी में निहित है। . . .
___ मैं पूज्यवर्य श्री मनोहर मुनि जी 'कुमुद' को तथा इस आयोजन के प्रेरक पूज्यवर्य श्री विजय मुनि जी 'संगीतप्रेमी' को इस परमोत्कृष्ट आयोजन के लिए हृदय पूर्वक साधुवाद देता हूँ तथा इसे सुन्दर रूप में प्रकाशित करवा कर धन्य होने वाले सेठ श्री प्राणलाल संघवी को भी हादिक वधाई देता हूँ।
ललित पारिख प्राध्यापक, उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदरावाद.
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अपनी बात
· आज से एक वर्ष पूर्व मैंने भगवान महावीर की वाणी के रूप में एक लघु संग्रह किया था। विविध सूत्रों में से इन गाथा--रत्नों का चयन किया गया है। इसमें अर्थ भी साथ दिया है। पाठक भली भान्ति गाथा के अन्तरंग में उतर कर इसमें आत्म-मज्जन कर आनन्द की अनुभूति कर सकता है । ज्ञानी के लिए तो कहीं भी क्लिष्टता व नीरसता नहीं हैं । संसार में ज्ञानी और विद्वान प्रायः कम ही होते हैं। जो हैं उनको किसी भी प्रेरणा व उद्बोधन की अपेक्षा नहीं रहती। बल्कि वे तो स्वयं संसार के लिए प्रेरक तथा उद्बोधक वनकर रहते हैं । आवश्यकता तो संसार के उन अन्धेरे मनों में दीपक __जलाने की है जो सत्य से अभी बहुत दूर हैं । ठोकरें खाने
वाले इस धरती पर असंख्य लोग हैं । उन्हें राह पर लाना इस जीवन का सबसे बड़ा सुकृत है। "भगवान महावीर के मनोहर उपदेश" यह पुस्तक मैंने इसी उद्देश्य से लिखी थी,. कि जिन आँखों ने भगवान महावीर के सूत्र कभी नहीं पढ़े-वे पढ़ें जिन कानों ने ये उपदेश कभी नहीं सुने वे कान भी सुनें ।
भारत में जैन धर्म का प्रचार प्रायः सब जगह है किन्तु बंगाल, उड़ीसा और आन्ध्र में अपेक्षाकृत कम है केवल राजस्थानी और गुजराती भाईयों के इधर आकर वसने से जनत्व
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के कुछ स्वर इधर सुनाई देते हैं । किन्तु वे इतने मन्द हैं कि दूर तक उनकी गति नहीं। इधर जितना भी प्रचार हो वह कम ही है । अंहिन्दी भाषी प्रान्तों में हिन्दी के बड़े-बड़े ग्रन्थ काम नहीं दे सकते । इधर आवश्यकता है लघुकाय संग्रहों की। छोटे-छोटे मनोरञ्जक मनोहर एवं शिक्षा-प्रद उपदेशों की। यह पुस्तक मेरे इसी विचार-मन्थन का एक नवनीत पिण्ड है।
इस पुस्तक को और अधिक रोचक एवं आकर्षक बनाने के लिए इसका मैंने पद्यानुवाद किया है। प्रत्येक गाथा के भावार्थ का पद्यानुवाद कर दिया है ताकि पाठक के लिए यह अधिक से अधिक रुचिकर बने । यह रचना मेरे इसी संकल्प का सुफल है।
अधिक से अधिक लोग मेरे इस प्रयास से लाभान्वित हो । यही मेरी हार्दिक अभिलाषा है--
मनोहर मुनि 'कुमुद
हैदराबाद
Ram
Samirselim
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बहत्तर उपदेश ही क्यों ?
मैं ने अपने इस संयोजन में वहत्तर ७२: ही उपदेशों का संग्रह किया है । क्योंकि यह अंक भगवान के आयुष्य का परिचायक है | भगवान के चारों ही कल्याणक बहत्तर वर्ष में पूरे हो गये । मनुष्य में यदि आत्मबल हो तो वह छोटी सी उमर में भी बहुत कुछ कर लेता है । भगवान ऋषभ को चौरासी लाख पूर्व की आयु में जो कुछ मिला वह महावीर ने केवल बहत्तर वर्षों में ही उपलब्ध कर लिया । केवल जीवन में उत्कट वैराग्य और त्याग की आवश्यकता है । कभी कभी हजारों उपदेश सुनने पर भी मन में वैराग्य नहीं जागता और न ही मन त्याग के लिए तैयार होता है और कभी एक ही उपदेश जीवन में जादू का काम कर जाता है ! जीवन में उपादान उपस्थित हो तो फिर बाहर का निमित्त भी काम कर जाता है । नहीं तो तीर्थंकर की वाणी भी भगवान महावीर की पहली देशना की तरह निष्फल हो जाती है । अन्तरंग कहाँ कितना जाग्रत है । यह व्यवहार ज्ञान से परे है । व्यवहार में तो शिक्षा, प्रेरणा तथा उद्बोधन ही प्रधान है । उस की उपयोगिता इस लोक में सोलह आना सत्य है ।
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जब एक उपदेश भी काफी होता है तो फिर क्या बहत्तर उपदेश कम हैं ? मुमुक्षु के लिए ये बहुत हैं । एक एक उपदेश
न
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प्रतिवर्ष भी जीवन में उतरता रहे तो इसे जीवन में आने के लिए वहत्तर वर्ष तो लग ही जायेंगे। उपदेश केवल गिनने और पढ़ने के लिए ही नहीं होते, वे मनन और आचरण करने के लिए भी होते हैं । प्यास बुझाने के लिए सारा सागर ही पीना नहीं होता! पानी के दो बूंट ही काफी हैं इस के लिए, किन्तु पीये तो? न पीने वाले के लिए कुंआ, तालाब, सरिता
और सागर सब वेकार हैं । पीने वाले के लिए मीठे पानी की एक गागर वहुत है । क्या गलत है यह ? ।
यह पुस्तुक भी एक 'गागर में सागर' और 'बिन्दु में सिन्धु' के समान है । यह परम प्रिय वहत्तर ७२ का अंक भगवान महावीर की मधुर स्मृति को आप के मानस में सदैव जाग्रत रख कर आप को अपने लक्ष्य की प्रेरणा देता रहेगा।
मनोहर मुनि 'कुमुद
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__इसके चिन्तन से मानव का .
- मंगलमय संसार बनेगा । . .
जीवन की नौका का यह
' . . .
....... एक सफल पतवार, वनेना ॥ .....
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.. एक एक
उपदेश इस का
जीवन कलिमल दूर करेगा।
ज्ञान दर्शन और चरित का
मंगलमय सुवास भरेगा ॥
终孝丰手表持持持持持持持李林区
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संयोजक तथा पद्यानुवादक स्व. आचार्य सम्राट पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज के मुशिष्य उत्कल केसरी पंडित रत्न प्रवक्ता
श्री मनोहर मुनिजी महाराज 'कुमुद'
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प्रेरकउत्कल केसरी श्री मनोहर मुनिजी महाराज के परम
सहयोगी, संगीत प्रेमी श्री विजय मुनिजी महाराज
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देखिए पढ़िये और सोचिये
जो नम्बर आप की जिज्ञासा व प्रश्न का है उसी नम्बर की गाथा में अपना समाधान पढ़ने का कष्ट करें। भगवान 'महावीर की इस धर्म वाणी में जीवन के गहन से गहन प्रश्नों का समाधान भी आप को उपलब्ध हो सकेगा इसमें । किन्तु इस के लिए प्रत्येक गाथा पर गहन चिन्तन भी नितान्त अपेक्षित है।
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संकेतों को भी समझिये.
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उत्त-उत्तराध्ययन सूत्र
दश–दशवकालिक सूत्र.. ....: . प्र०-प्रज्ञापना सूत्र ..
सू-सूत्रः कृतांग. श्रुत्र-श्रुतस्कन्ध अ०-अध्याय गा०-गाथा उ०-उद्देश
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वे जिज्ञासाएँ जो किसी भी
आस्तिक विचारक
तथा
धार्मिक व्यक्ति के हृदय
उभर सकती हैं
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१. कर्म का बीज क्या है ? कर्म कहाँ से उत्पन्न होता है ? जन्म-मरण का मूल क्या है ओर वस्तुतः दुख किसे कहा जाता है ?
२. जीव के आवागमन की धुरी क्या है ?
३. मनुष्य जन्म कब और कैसे प्राप्त होता है ?
४. जीवन में शान्ति पाने के लिए किस शास्त्र - ज्ञान की आवश्यकता है ?
'५. मानव का सच्चा धर्म क्या है ?
६. अहिंसा का व्यापक रूप क्या है ? ७. संसार में अविश्वास का मूल क्या है ? ८. मनुष्य को कैसी वाणी बोलनी चाहिये ? ९. अस्तेय का विराट् एवं सच्चा स्वरूप क्या -१०. ब्रह्मचर्य का साधक कोन हो सकता है ? ११. पाप से उपार्जित धन के क्या दुष्परिणाम होते हैं ? - १२. दुराचारी की दुनिया में क्या दुर्दशा होती है ? -१३ - १४. संसार में शुभाशुभ तथा दुख-सुख का जिम्मेवार कोई और है या स्वयं जीव ही ?
१६. कपाय से क्या क्या हनियाँ होती हैं ? १७. अज्ञानी क्या क्या कर्म करता है ?
१८. सच्ची विजय क्या है ? १९. कपाय कैसे दूर हों ? २०. मान पाप की खान - कैसे ?
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१५. युद्ध किस से करना चाहिये ? सच्चा सुख कैसे मिलता है ?
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२१. नरक में कोन जाता है ? २२. धर्म श्रवण से क्या लाभ होता है ? २३. धर्म के चार दुर्लभ अंग कौन कौन से हैं ? २४. धर्म कहां रहता है ? २५-२६. धर्म का मूल क्या है ? २७-२८. अविनीत के क्या लक्षण हैं ? २९-३०. विपत्ति किसे और संपत्ति किसे ? ३१. शिक्षा कीन पा सकता है ? ३२. संसार में दुख किसे होता है ? । ३३. संसार में कोन धर्म-मार्ग नहीं भूलता ? ३४-३५. शिक्षाशील के लक्षण क्या होते हैं ? ३६-३७. श्रमण, ब्राह्मण, मुनि तथा तापस भेप से होता है __या गुण से ? ३८. क्या दुश्शील किसी का रक्षक बन सकता है ? ३९. कौन वन्धता है और कौन मुक्त होता है ? ४०. सच्चा ब्राह्मण कौन ? ४१. जाति प्रधान कि कर्म ? ४२-४३. कीन कर्म करते हुए भी कर्म से लिप्त नहीं होता ? ४४-४५. समत्व-योग क्या है ? ४६. मनुप्य जीवन भर क्या सोचता रहता है ? ४७. क्या धन किसी को पाप कर्म के फल से बचा सकता है ? ४८. फर्मो का फल भोगते समय क्या वन्ध सहायक होते हैं ? ४९. पया पापी के लिए कोई मरण है ? ५०. मोक्ष के साधन क्या है ?
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५१. मनुष्य को संसार में कैसे रहना चाहिये ? ५२. निर्वाण क्या है ? ५३. चार अमूल्य वातें-कौन सी हैं ? ५४. धर्म कव तक कर लेना चाहिये ५५. दिनरात किस के सफल होते हैं ? ५६. संसार में ड्वते प्राणी को सहारा किस का है ? ५७. सुगति किसे मिलती है ? ५८. संगति किस की करे और किस की न करे अकेला भी।
यदि रहना पड़े तो फिर किस प्रकार रहे ? ५९. सच्चा त्यागी कौन ? ६०. अपनी सव से अधिक हानि कौन करता है ? ६१. ज्ञान प्राप्त कर ज्ञानी होने का सार क्या है ? ६२-६३. जीवन क्षणिक है, नश्वर है। किस की तरह ? ६४. कितने प्रकार की भाषा सत्य हो सकती है ? ६५. असत्य भाषा के प्रकार कितने हैं ? ६६. मनुष्य को प्रतिदिन क्या चिन्तन करना चाहिये ? ६७. क्या इच्छा का अन्त हो सकता है ? ६८. क्या कर्म भोगना ही पड़ता है ? ६९. इस संसार से कौन तर सकता है ? ७०. सच्चा यन क्या है ? ७१. सच्चा स्नान क्या है। ७२. व्यक्ति दुखों से कब छूटता है ?
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कवितानुवाद
अब समाधान
पढ़िये
भगवान महावीर की
अपनी
वाणी में
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१. गाथा
२
रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कम्मं च मोहव्यभवं वयंति । कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति ॥
अर्थ
उत्त० अ० ३२ गां० ७
राग और द्वेष- ये दो ही कर्म के वीज हैं । कर्म मोह से उत्पन्न होता है और कर्म ही जन्म मरण का मूल है। वस्तुतः जन्म-मरण को हो दुख कहा जाता है ।
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१
इक राग है, इक द्वेष है,
___ कर्म का यह वीज है । जोव को जो वान्धती यह,
एक ही बस चीज है ।
२
आवागमन का मूल जो,
उस कर्म को मोह खान है। आत्मा का ज्ञान मोह-वश,
चन रहा अज्ञान है ॥
३. इफ जन्म है इक मरण है,
संसार के ये दुःख महा। * महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा।
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२. गाथा
एगया देवलोएस
नरएसु वि एगया। एगया आसुरं कायं
अहाकम्मेहि गच्छइ॥
उत्त० अ० ३ गा० ३
अर्थ
जीव अपने कृत कर्मानुसार कभी देवलोक में, कभी असुर योनि में और कभी नरक में चला जाता है।
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________________
१. स्वर्ग के सुख-भोग प्राणी,
कर्म से पाता रहा । कर्म के बन्धन से ही, . यह नरक में जाता रहा ।।
२. आसुरो योनि का यह,
मेहमान भी बनता रहा । कर्म के उद्भव से यह,
इनसान भी बनता रहा ।
३. कृत कर्म के अनुसार ही,
यह रूप नाना बदलता। ★ महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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________________
३. गाथा
कम्माणं तु पहाणाए
. आणुपुव्वी कयाइ उ । जीवा सोहिमणुप्पत्ता ____ आययंति मणुस्सयं ॥
उत्त०. अ० ३ गा० ७
अर्थ
कर्मों के अनुसार एक योनि में से दूसरी योनि में भटकते हुए और अकाम निर्जरा के कारण कर्मों ___ का भार हलका हो जाने से जीव शुद्धि को प्राप्त करते
हैं और फिर किसी समय मनुष्य योनि में जन्म धारण कर लेते हैं।
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________________
१. उच्च नीच गतियों में प्राणी,
कर्म शक्ति से जाता है । अकाम निर्जरा के कारण,
फभी शुद्धि-पथ पर आता है।
२. पाप कर्म से मुक्त हुमा कुछ,
मानव भव में है माता। ★ महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम को कहा।।
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________________
४. गाया
माणुस्सं विग्गहं लद्ध
सुई धम्मस्स दुल्लहा। जं सोच्चा पडिवज्जंति,
तवं खन्तिमहिंसियं ॥
उत्त० अ० ३ गा० ८
अर्थ
___ यदि किसी तरह मनुष्य जन्म मिल भी जाए तो भी धर्म शास्त्र का श्रवण अति दुर्लभ है। धर्म शास्त्र वस्तुतः वही है, जिसे सुनकर प्राणी तप-क्षमा तथा अहिंसा को ग्रहण करते हैं।
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१ क्या हुआ यदि मनुज तन भी,
पा लिया संसार में । ___ खा रहे नित ठोकरें,
अज्ञान के अन्धकार में ।।
२ ज्ञान के अनुराग का मुश्किल,
है मन में जागना, जिसके विना अति कठिन है,
मिथ्यात्व का मोह त्यागना ।।
३. शास्त्र फिर ऐसा सुने,
जो हिंसा से बचा देवे । क्षमा और तप को जो,
मन में ज्योति जगा देवे ।।
४ जोपन के लिए मिय्या श्रुति,
भव भव में रहती दुखदा । ★ महायोर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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________________
५. गाथा
धम्मो मंगलमुक्किठें
अहिंसासंजमो तवो ! देवावि तं नमसंति
जस्स धम्म सया मणो॥
दश० अ० १ गा० १
अर्थ
धर्म एक उत्कृष्ट मंगल है । वह अहिंसा, संयम और तप रूप है । जिस का मन सदा ऐसे धर्म में स्थित रहता है, उस धर्मात्मा पुरुष को देवता भी नमस्कार करते हैं।
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________________
१.
२.
३.
जगत की मधु शान्ति न
११
त्रिताप की उपशान्ति,
संयम,
धर्म ही आधार है ।
सम्प्रदाय से परे, शुद्ध,
स्वर्ग
यह धर्म का उपकार है ||
धर्म का स्वरूप है ।
तपस्या व दया,
यह धर्म का शुद्ध रूप है ॥
मन वचन और कर्म से,
यह धर्म जिनके पास हं ।
का भी देवगण,
उनके चरण का दास है ||
४. संसार में मंगलमय है, धर्म का हो पथ तदा ।
★ महावीर ने यह सुवचन, प्रिय शिष्य गौतम से कहा ॥
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________________
६. गाथा
.
.
.
जावन्ति लोए पाणा.
तसा अदव थावरा। . ते जाणमजाणं वा
न हणे नो वि घायए ॥ ... . दश० अ० ६ गा० १०
अर्थ
इस संसार में जितने भी त्रस और स्थावर .. जीव हैं उन की जाने-अनजाने न स्वयं हिता करे और
न दूसरे से उन का घात करवाए। ...
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________________
१. उपयोग मय यह जीव है,
और जीदमय संसार है। इस ओर भी उस ओर भी,
सर जीव का विस्तार है ।
२. छोटे बड़े हर जीव को,
निज आत्मा सम मान लो। मन वचन और फर्म से,
न तुम किसी का प्राण लो ।।
३. भूलकर भी तुम कभी,
हिंसा फिसी को मत करो। न दूसरों को तुम कमी,
इसके लिए प्रेरित फरो॥
४ धर्म सूत्रों में सभी से,
___ यही सूत्र है बड़ा । * महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से रहा ।।
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________________
७. गाया
मुसावाओ य लोगश्मि
सव्वसाहिं गरिहिओ। अविस्सासो य भूयाणं
तम्हा मोसं विवज्जए॥
दश० अ० ६ गा० १२
अर्थ
संसार में सभी श्रेष्ठ पुरुषों ने झूठ-असत्य वचन को निन्दा की है ! क्योंकि झूठ मनुष्यों के हृदय में अविश्वास उत्पन्न करता है। अतः असत्य वचन का परित्याग कर देना चाहिए।
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१. वैसे तो मानव-जगत में,
बहुत तरह का पाप है। पर समझ लो इतना जरा,
कि झूठ सव का बाप है ।।
२. झूठ और विश्वास का,
होता कभी भी मेल ना । साधु जनों ने झूठ की,
भर पेट की है भर्तना ॥
३. छोड़ दे हे धर्म राहो !
झूठ को तू सर्वदा । * महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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________________
. ८ गाथा
दिळं मियं असंदिद्धं पडिपुण्णं विअंजियं । अयंपिरमणुदिग्गं भासं निसिर अत्तवं
दश० अ० ८ गा० ४९
अर्थ
___ आत्म-ज्ञानी सदा दृष्ट, परिमित, असन्दिग्ध, परिपूर्ण, स्पष्ट, अनुभूत, वाचालता से रहित और किसी प्राणी के लिए उद्विग्नकारक न हो, ऐसी वाणी
बोले।
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(३)
१. वाणी से ही संसार में,
मनुष्य को पहचान है । सत्य उस की शान है,
और सत्य उसका प्राण है ।।
२. जानी रहे गम्भीर नित,
थाचालता में न वहे। सन्देह रहित · देखा हुआ,
परिपूर्ण परिमित सत्य कहे ।।
६. अनुभूति में उतरा हुआ,
स्पष्ट हितमय प्रिय कहे । जो भी सुने छोटा-बड़ा,
हृदय फली उसकी खिले ।।
४. न कुवचन मुख से कहे,
जो दुसमय हो विष भरा। * महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ॥
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९. गाथा
उड्ढं अहेय तिरियं दिसासु
तसा य जे थावर जे य पाणा। हत्थेहि पायहि य संजमित्ता, अदिन्नमन्नसु य नो गहेज्जा॥
सू० श्रु० १ अ० १० गा० २
-
-
अर्थ
ऊर्ध्व और तिर्यग् दिशा में जितने भी त्रस और स्यावर जीव रहते हैं आत्मज्ञानी पुरुष उन्हें हाथ-पैरों तथा अन्य अंगों से किसी भी प्रकार की पीड़ा न पहुंचावे। अपने जीवन को संयम में रखें। विना दिये दूसरे की चीज कदापि न लेवे ।
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१
मनुष्य के चारों तरफ,
फितना बड़ा संसार है। जड़ व चेतन का मिलन हो,
लोक का आकार है ।।
२. वे बस संज्ञक जीव हैं,
है व्यक्त जिनकी चेतना । उनका स्थावर नाम है,
अध्यक्त जिनको वेदना ।।
३ है तार संयम फा यही,
हिंसा किसी की न करे । हाथ से और पैर से,
न प्राण प्रिय उनका हरे ।।
४. न कुछ भी ले आज्ञा बिना,
है सन्त फा व्रत याचना । * महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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१०. गाथा
सद्दे रूवे य गंधे य, ___ रसे फासे तहेव य। पंचविहे कामगुणे,
निच्चसो परिवज्जए॥
-
उत्तं० अ० १६ गा० १०
अर्थ
__ ब्रह्मचर्य के साधक को शब्द रूप, रस गन्ध और स्पर्श आदि पांच काम गुणों को संदा के लिए छोड़ देना चाहिये।
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२१
१. जीवन के समस्त व्रतों का,
ब्रह्मचय सम्राट् है । हर व्रत है छोटो नदी,
ब्रह्म सागर विराट् है ।।
२. साधक को साधना का,
ब्रह्म ही प्राण है । आत्मा के साक्षात् का, .
ब्रह्म हो सोपान है ॥
३. कहीं शब्द, रूप और गन्ध है,
कहीं स्पर्श-रस के योग हैं। नश्वर सुख के बीज ये,
इन्द्रियों के भोग हैं ॥
४. हे ब्रह्म के साधक तुम्हें !
है काम गुण को छोड़ना । ★ महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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·
२२
११. गाया
जे पाव कम्मे हि धणं मणूसा समाययन्ती अमई गहाय । पहाय ते पासपर्यट्टिए नरे वेराणुबद्धा णरयं उवेन्ति ॥
अर्थ
उत्त० अ० ४ गा० २
धन को अमृत स्वरूप समझ कर मनुष्य अनेक पाप कर्मों के द्वारा धन को प्राप्त करता है और वह कर्मों के दृढ बन्धन में बंध जाता है । अनेक प्राणियों के साथ वैर वान्ध कर अन्त में सब कुछ यहीं छोड़ कर नरक में चला जाता है ।
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१. जो जो पाप पथिक पाप से, नित धन कमाता है ।
अमो रस समझ कर इसको,
२.
२३
वह अपना सब गंवाता है ||
किसी से राग करता है,
किसी से द्वेष करता है ।
हिंसा-वैर के पापों से,
४. मधु
जीवन घट को भरता है ॥
वान्घ कर कर्म के बन्धन,
वह खाली हाथ जाता है ।
भटकता है चौरासी में,
नरक के दुख उठाता है ||
सा,
लिपटी खड्ग
है भोग के तुख का मजा ।
★ महावीर ने यह सुवचन, प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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१२. गाया
१२. गाया ..... जह सुणी पूइ. कन्नी
निक्कसिज्जई सव्वसो। एवं दुस्सील पडिणीए
मुहरी निक्क्रसिज्जई॥
.उत्त०. अ० १.गा० ४
अर्थ
जैसे सडे हुए कानों वाली कुतिया प्रत्येक स्थान से निकाल दी जाती है वैसे ही दुःशील और गुरुजनों का विद्वेषी तथा असम्बद्ध प्रलापी मनुष्य सव स्थानों से निकाल दिया जाता है।
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(४)
१
जो बाहर से तो साधक है,
पर दुःशील अभिमानी है । जो गुरु जनों का निन्दक है,
और विद्वेषी अज्ञानी है।
२. जिस की आँखों में शर्म नहीं,
जो मुंह आए कह देता है । जो त्याग मूत्ति गुरु जन को भी,
आड़े · हाथों लेता है ॥
३. सड़े हुए कानों वाली वह,
फुतिया-सा दुख पाता है । वह धर्म-संघ और धर्म गण से,
वाहर निकाला जाता है ।।
४. सन्मान मिल सकता नहीं,
अविनीत को संसार का। * महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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________________
१३. गाथा
अप्पा नई वेयरणी ___ अप्पा मे कूडसामली। अप्पा काम दुहाधेनु
अप्पा मे नन्दणं वणं ॥
उत्त० अ० २० गा० ३६
अर्थ
मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी है, मेरी आत्मा ही कूट शाल्मली वृक्ष है। मेरी आत्मा ही कामधेनु है और मेरी आत्मा ही नन्दन वन है।
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१. वैतरणी नदी-सा दुख मया,
है स्वयं ही यह आत्मा । स्वयं ही इस आत्मा को,
शाल्मी तरु सा कहा ।।
२. है स्वयं ही आत्मा यह,
काम धेनु सुख - मया । स्वर्ग का नन्दन समझ लो,
है स्वयं यह आत्मा ॥
३. दुख का
और सुख का बस,
है
जनक यह
आत्मा ।
*
महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ॥
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________________
.
१४. गाया
.
.
अप्पा कत्ता विकत्ता य
दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च
दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ ॥
उत्त० अ० २० गा० ३७
अर्थ
आत्मा स्वयं ही दुख-सुख को उत्पन्न करता है और स्वयं ही नाश करता है। सत्पथ पर चलने वाला आत्मा स्वयं अपना मित्र है और असत पथगामी आत्मा स्वयं ही अपना शत्रु है।
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________________
१. स्वयं ही स्वर्ग का यह,
आत्मा निर्माण करता है। अपने ही फर्म से यह,
नरक का मेहमान बनता है ।।
२. कभी विवेक से यह,
सुख की दुनिया वसाता है । कभी अज्ञान में आकर,
स्वयं प्रलय मचाता है ।।
३. कभी अपने से हो यह,
शत्रु - सा व्यवहार करता है । कभी सुमित्र बन कर,
स्वयं का उपकार करता है ।।
४. सत्य अपना मोत है,
और असत् शत्रु है बड़ा । * महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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________________
१५. गाथा
अप्पाणमेव
जुज्झाहि
किं ते जुज्झेण बज्झओ ।
अप्पाणमेव
अर्थ
३०
जइत्ता
अप्पाणं,
i
सुहमे हए ॥
उत्त० अ० ९ गा० ३५
हे पुरुष ! สี अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध कर । बाहर के शत्रुओं से लड़ने से क्या लाभ ? आत्मा के द्वारा ही आत्मा को जीतने से सच्चा सुख मिलता है ।
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________________
१. है कहाँ दुश्मन तेरा ? इतना नहीं तुझ को पता !
अज्ञान में तू बाहर के, नित शत्रुओं से लड़ रहा,
३१
२. तेरे ही मन का विम्ब है, सर्वत्र बाहर पड़ रहा ।
तू स्वयं निज को देखता है, बाहर में अच्छा बुरा ॥
३.
न बाहर के संग्राम में, तुम नष्ट जीवन को करो ।
अपने ही मन को रोक कर ? अपने विकारों से लड़ो ॥
४. ज्ञान से मन
जीत कर,
तू सुख शाश्वत पायेगा ||
★ महावीर ने यह तुवचन, प्रिय शिष्य गौतम से कहा ॥
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________________
१६. गाया
३२
कोहो पीई पणासेइ
माणो विषयनासणी ।
माया मित्ताणि नासेइ लोहो सव्वविणासणो ॥
अर्थ
दश० अ० ८ गा० ३८
क्रोध प्रीति को नष्ट करता है। मान से विनय का नाश होता है । माया मित्रता का हनन करती है और लोभ सब गुणों का नाश कर देता है।
1
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________________
३
१. कषाय आत्मा के लोक में,
विप्लव मचाता है । सद्गुणों के शिखर से ___ नीचे गिराता है ॥
२. फ्रोध प्रेम के सूत्र को,
झटपट तोड़ देता है । विनय के फनक-घट को भी, .
यह अहं फोड़ देता है ।।
३. छल से मंत्री का भाव भी,
निष्प्राण होता है । लोभ से सर्व गुण गण फा,
ही बस अवसान होता है ।।
४. दमन करना चाहिये,
साधक फो इस कपाय का। * महावोर ने यह सुवचन,
प्रिय शिप्प गौतम से कहा ।।
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________________
१७. गाथा
..
.
हिसे बाले मुसावाई __ माइल्ले पिसणे सढे । भुंजमाणे सुरं मंसं
सेयमेयं ति मन्नइ ॥
उत्त० अ० ५ गा० ९ ।
अर्थ
अज्ञानी मनुष्य हिंसा करता है, झूठ बोलता है, छल कपट करता है । निन्दा-चुगली में रत रहता है। डाठता का व्यवहार करता है और मांस मदिरा का सेवन करता है । यह सब कुछ करता हुआ भी अज्ञान के कारण इसी में अपना हित समझता है ।
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________________
१.
२.
जानते
४.
हो बाल
जन को.
क्या भला पहचान है ।
बाल वह जो आत्मा के, ज्ञान से अनजान है ।।
जो शरण ले असत् को,
हिंसा सदा करता रहे । कपट से व पिशुनता से,
पाप घट भरता रहे ।
३. जीवन के हर व्यवहार में, नहीं घूर्तता को छोड़ता ।
सुरा में और मांत में, आसक्त रहता हं सदा ||
आश्चर्य है फिर मानता है,
पय इसे कल्याण
★ महावीर ने यह सुवचन,
का ।
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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________________
१८, गाया
अर्थ
३६
जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे | एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ ॥
उत्त० अ० ९ गा० ३४
दुर्जय संग्राम में दस लाख सुभटों पर विजय प्राप्त करने को अपेक्षा अपने ही दुष्ट मन पर विजय प्राप्त करना सब से श्रेष्ठ विजय है ।
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________________
१. वीर किसको है कहा ?
उसकी विजय का रूप क्या ? भोग का यह कीट मानव,
- क्या इसे है समझता ?!
२ जो विजय संग्राम में,
दस लाख सुभटों पर करे, आत्म-विजय को समझ लो,
तुम इस विजय से भी परे ।।
३. आत्म विजेता ही सदा,
मन-इन्द्रियों को जीतता । लोक में परलोक में,
वह सख पाता है सदा ।।
४. जग में विजय होती नहीं,
मन-जगत को जोते विना । * महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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________________
१९. गाथा
उवसमेण हणे कोहं . ___माणं मद्दवया जिणें। मायं च अज्जवभावेण
लोभं संतोसओ जिणे॥
दश०. अ० ८ गा० ३९
अर्य
शान्ति से क्रोध को, नम्रता से अहंकार को, सरलता से कपट को तथा सन्तोष से लोम को जीतना चाहिये।
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________________
१. तू शान्ति से क्रोध का,
उपशमन करना सीख ले। मदु भाव से अहंकार का,
नियमन करना सीख ले ।
२. ऋजता से छल के पाप का,
तू दमन करना सीख ले। सन्तोष से तू लोप फा
हनन फरना सीख ले ॥
३. इस तरह साधक करे,
निज आत्मा को साधना । * महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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२०. गाथा
पूयणट्ठा जसो कामी
माणसम्माण कामए । बहुं पसवई पावं मायासल्लं च कुव्वई॥
वश० म० ५ उ० २ गा० ३७
अर्थ
जो पूजा, यश तथा मान-सन्मान की कामना करता है, इसकी प्राप्ति के लिए उसे बहुत पाप करना पड़ता है और वह इसके लिए कपट भी करता है।
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________________
YE)
१. सिर पर पाप की गठरी,
उठा कर कौन ले जाता । पाप के विकट सागर में,
गोते कौन है खाता ? ।। २. साधफ मोह का बन्धन,
पलक में तोड़ सकता है । मां और पुत्र के भी,
मोह से मुख मोड़ सकता है ।। ३. मगर मुश्किल है दिल से,
. इक यशेच्छा को हटा देना । पूजा के मृदुल कुसुमों से,
इस मन को बचा लेना ।।
४. मान-सन्मान के भसे,
हमेशा पाप फरते हैं। पूजा फो लो पर वह,
शलम वन-वन के गिरते है ।।
५. यश के वास्ते साधा,
फपट पा जाल है बनता । * महापौर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतन से पहा ।।
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२१. गाया
पडन्ति नरए घोरे
जे नरा पावकारिणो। दिव्वं च गई गच्छंति
चरित्ता धम्ममारियं ॥
उत्त० अ० १८ गा० २५
अर्थ
जो मनुष्य पाप करता है वह घोर नरक में जाता है और जो आर्य धर्म का आचरण करता है वह दिव्य गति को प्राप्त करता है।
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________________
१.
४३
२.
पाप कर्म का रसिक प्राणी, घोर नरक में जाता है ।
आयं धर्म का आराधक, दिव्य गति नित पाता है ||
पाप से चच फर मनुष्य ! धर्म में तू मन लगा ।
★ महावीर ने यह सुवचन, प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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२२. गाथा
सोच्चा जाणइ कल्लाणं
सोच्चा जाणइ. पावगं । उभयं पि जाणइ सोच्चा
जं सेयं तं समायरे ॥
दश० अ० ४ गा० ११
___ अर्थ
मनुष्य श्रवण करने से ही कल्याण के मार्ग को जानता है और श्रवण के द्वारा ही उसे पाप का जान होता है। दोनों मार्गों को जान कर, जो आत्मा के लिए शान्तिकर मार्ग हो उसे ग्रहण करना चाहिये।
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.
।
१. श्रवण से ही धर्म का,
परिज्ञान होता है पाप-पय का श्रवण से ही, ____ भान होता है
॥
२. दोनों का सम्यक ज्ञान नर,
श्रवण से ही पायेगा । उसको मिलेगी शान्ति,
जो धर्म-पय अपनाएगा ।।
३. श्रुतज्ञान के नित श्रवण फो,
प्रियवर पानी न भूलना । * महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से पहा ।।
hini
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२३. गाथा
चत्तारि परमंगाणि
दुल्लहाणीह जन्तुणो। माणुसत्तं सूइ सद्धा
संजमम्मि य वीरियं ।
उत्त० अ० ३ गा० १
अर्थ
इस संसार में जीव को मनुष्यत्व, धर्म श्रवण श्रद्धा और संयम-धर्म के इन चार दुर्लभ अंगों को प्राप्ति दुर्लभ होती है।
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________________
१. सब कुछ मिलता है दुनिया में,
पर सार नहीं मिल पाता है । सार यदि मिल जाए तो,
फिर निकट समी कुछ आता है ।।
२. धर्म के चार ही हैं अंग,
जो दुर्लभ कहे जाते । बड़े ही पुण्य से प्राणी,
उन्हें जीवन में हैं पाते ।।
३. मनुष्य में भी मनुष्यता,
मुश्किल मे मिलती है । हृदय में श्रुत की फलिफा,
कहीं मुश्किल से खिलतो है ।।
४. श्रद्धा का जागना मन में,
बड़ा दुर्लभ फहा जाता । . बड़ी कठिनाई से प्राणी,
है संयम-पथ पर आता ।।
५. इन चार अंगों का मिलन,
जीवन में दुलंभ है महा । ★ महावीर ने यह सुपचन,
प्रिय शिष्य गौतम से रहा ।।
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________________
२४. गाथा
सोही उज्जुयभूयस्स
धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई । निव्वाणं परमं जाइ
घयसित्तिव्व पावए ।
उत्त० अ० ३ गा० १२
अर्थ
सरल आत्मा की शुद्धि होती है और शुद्ध आत्मा में ही धर्म टिकता है। घी से सिंचित अग्नि के समान वह देदीप्यमान होकर परम निर्वाण को प्राप्त करता है।
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(७)
१. सरलता का जो धनी,
नित शुद्धता का दास है । शुद्ध मन में ही सदा,
मंगल धर्म का वास है ।।
२ घृत-सिञ्चन आग की ज्यों,
ति फा वर्धन करे । आत्म-धर्म का साधफ भी,
निर्वाण फा अर्जन फरें ।।
2. सापना का बोज सायद !
तमा लो है सरलता । ★ महापोर में यह उपचन,
प्रिय गिर गौतम ले पहा ।
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२५. गाथा
मूलाओ खंधप्पभवो दुमस्स
खंधाउपच्छा समुवेन्ति साहा। साहप्पसाहा विरुहन्ति पत्ता तओ सि पुष्पं च फलं रसो॥
वश० अ० ९ उ० २ गा० १
अर्थ
वृक्ष के मल से तना उत्पन्न होता है। फिर विभिन्न शाखाएं फूटती हैं। शाखाओं से प्रशाखाएं निकलती हैं। प्रशाखाओं पर पत्ते उगते हैं। फिर फूल खिलते हैं। फिर फल लगते हैं और पश्चात् फलों में रस उत्पन्न होता है।
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१. मूल से उभरे सदा ही,
तर का मोटा तना । शाखा प्रशाखा के विभव को,
देख फिर मनहर छटा ।।
२. डालियों की एक शोभा,
है मृदुल पत्ते घने । पत्तियों को फूल-फल,
और फल फिर रसमय बने ।।
53
5720
३
जानना ।
मूल से ले रस तलक,
कम है यही तुम जानना । महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतन से कहा ।।
*
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________________
२६. गाथा
एवं धम्मस्स विणओ
मूलं परमो से मोक्खो। जेण कित्ति सुयं सिग्छ
निस्सेसं चाभिगच्छइ॥
- . वश० अ० ९ उ० २ गा० २
अर्थ
इसी प्रकार धर्म रूपी वृक्ष का मूल विनय है और उसका अन्तिम परिणाम मोक्ष है। विनय से मनुष्य कीति, श्रुतज्ञान और प्रशंसा पूर्णरूपेण प्राप्त करता है।
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१. सब ने विनय को हो,
धर्म का मूल माना है । मोक्ष उसका रस परम,
सुख का. खजाना है ॥ .
२. विनय से हो कीति,
श्रुत ज्ञान मिलता है । सन्मान व निर्माण,
फिर निर्वाण मिलता है ।।
६. विनय फो साधक ! समक्ष,
जोदन को सच्ची सम्पदा । ★ महाबोर ने यह सुपचन,
प्रिय शिल गौतन से पहा ॥
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२७. गाया
अभिक्खणं कोही भवइ ___ पबन्धं च पकुव्वई । मेत्तिज्जमाणो वमइ
सुयं लभ्रूण मज्जई ॥
उत्त० म० ११ गा० ७
अर्थ
अविनीत व्यक्ति के चौदह लक्षण होते है । जैसे कि (१) जो बार बार क्रोध करता हो । (२) जिस का क्रोध शीघ्र शान्त न होता हो। (३) जो मित्रता को न निभाता हो। (४) जो विद्या प्राप्तकर गर्व करता हो।
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________________
१.
५५
क्रोध करे जो बार बार
निज मन में गांठ बना रखे ।
जो पल में मित्र को छोड़े,
और विद्या का भी गर्व करे ||
( अगली गाथा से सम्बन्धित )
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________________
M
२८. गाथा
अवि पाव परिक्खेवी
अवि मित्तेसु कुप्पई । सुप्पियस्सावि मित्तस्स
रहे भासइ पावयं ॥
उत्त० अ० ११ गा० ८
अर्थ
(५) जो गुरु जनों का तिरस्कार करने वाला हो। (६) जो घनिष्ट मित्रों पर भी क्रोध करता हो। (७) जो हितैषी मित्र को भी पीठ पीछे बुराई फरता हो।
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________________
(८)
१. गुरु चरणों का अपमान फरे.
जो प्रिय मीत पर फोध करे । उपकारी को निन्दा से भी,
नहीं फनी जो बाज रहे ।
(अगली गाथा से सम्बन्धित)
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________________
२९. गाथा
पइण्णवाई दुहिले
थद्धे लुद्धे अणिग्गहे। असंविभागी अवियत्ते
अविणीए त्ति वुच्चइ॥
उत्त० अ० ११ गा० ९
अर्थ
(८) जो असम्बद्ध प्रलापी हो। (९) द्रोही हो। (१०) जो अभिमानो हो। (११) जो रसों में मासक्त हो । (१२) जो इन्द्रियों के वश में हो । जो अंसविभागी हो। जो सब को अप्रीतिकर हो । उसे अविनीत कहते है।
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________________
१. जो मुंह आया वक देता है,
जो हर हृदय से द्रोह फरे । जो अभिमान रसासक्ति,
न असंयम से रहे परे ।
२. जो कांटे सा सबको खटके,
जो दे न फर के वटवारा। ऐसा साधक अविनीत कहा,
न लगे किसी को भी प्यारा ॥
३. अधिनीत को साधफ ! समान,
निएफल है सारी साधना । ★ महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिप्प गौतम से पाहा ।।
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________________
३०. गाया
विवत्ती अविणीअस्स ___संपत्ती विणिअस्स य। जस्सेयं दुहओ नायं
सिक्खं से अभिगच्छइ॥
दश० अ० ९ उ० २ गा० २२
अर्य
अविनीत को विपत्ति और विनीत को सम्पत्ति मिलती है । इन दो बातों को जिसने जान लिया है वही सच्ची शिक्षा प्राप्त कर सकता है।
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________________
१
संसार का हर एक दुख,
अविनीत को है घेरता । सुविनीत को मिल जाती है,
सारे जगत की सम्पदा ।।
२. वल अपरिमित विनय फा.
है जगत में माना गया । * महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से पहा ।।
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________________
३१. गाथा
अह पंचहिं ठाणेहि
जेहि सिक्खा न लब्भई। थम्भा कोहा पमाएणं
रोगेणालस्सएण य ॥
उत्त० अ० ११ गा० ३
अर्थ
अभिमान, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य इन पांच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकती।
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________________
१. है पञ्चदोष का वास जहाँ,
न वहाँ सभी शिक्षा जातो। न वह देखे ऊँचे कुल को,
न वह देखे ऊंची जाति ।।
.
जो अहंकार में चूर रहे,
न विजय क्रोध पर पाता है । प्रमाद, रोग व आलस को,
न मन से दूर हटाता है ।
३ उस साधक को शिक्षा दासो,
जो पञ्चदोष से दूर रहा। * महादोर ने कहा सुपचन,
प्रिय तिर गौतम से पहा ।।
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________________
३२. गाथा
जावन्तऽविज्जा पुरिसा
सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्पन्ति बहुसो मूढा
संसारम्मि अणन्तए ॥
उत्त० अ० ६ गा० १
अर्थ
संसार में जितने भी अज्ञानी मनुष्य हैं सब दुख उन्हें ही होते हैं। अज्ञानी इस अनन्त संसार म बहुत प्रकार से कष्ट उठाते हुए परिभ्रमण करते रहते हैं।
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________________
१. अज्ञान के अन्धकार में,
जो ठोकरें हैं खा रहे । सौ बात की है बात यह,
वे दुख सारे पा रहे ।।
२
अनन्त इस संसार में,
नर सूट दुख पाता रहे । इस दुखमय संसार में. ___आता रहे. जाता रहे ।
३. नित बाध्य देते रहो,
तुम ज्ञान ऐ. प्रकाश या । * महावीर ने यह मुवचन,
प्रिय मित्र गौतम से फहा ।।
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________________
३३. गाथा
जहा सूई ससुत्ता
पडियाविन विणस्सइ। तहा जीवे ससुत्ते
संसारे न विणस्सइ॥
उत्त० अ० २९ गा० ५९
अर्थ
जैसे धागा-पिरोई हुई सूई के गिर जाने पर भी सरलता से मिल जाती है। ठीक इसी तरह सूत्रज्ञान से युक्त आत्मा संसार में पथ भ्रष्ट नहीं होता। यदि पूर्व कर्मानुसार कहीं मार्ग से गिर भी जाये तो शीन ही सम्भल जाता है ।
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________________
१. धागे वाली सूचिका ज्यों ?
गुम न होने पाती है । गिर जाने पर भी वह शीघ्र,
आंखों में आ जाती है ।।
२. ऐसे ही ज्ञानी पथ से,
न विचलित होने पाता है । फर्म दोष से डिगा हुआ भी,
सत्वर • पथ पर आता है ।।
३
लोप में परलोक में,
लो आपय नित ज्ञान का । महावीर ने यह सुपचन,
प्रिय तिर गौतम से रहा ।।
★
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________________
३४. गाथा अह अहिं ठाणेहिं
सिक्खा सीले त्ति वुच्चई । अहस्सिरे सया दन्ते
न य मम्ममुदाहरे ॥
उत्त० अ० ११ गा० ४
अर्थ
आठ गुणों से व्यक्ति शिक्षाशील कहलाता है। जो अकारण ही नहीं हंसता रहता हो अर्थात् जो गम्भीर रहता हो । जो इन्द्रियों का विजेता हो । जो दूसरे का मर्म नहीं कहता हो।
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________________
१
आठ गुणों के आभूषण,
जिस साधक के पास रहें । फान खोल फर सुनो जरा,
हम उस फो शिक्षावान कहें ।।
२. जो विन कारण न हंसे कभी,
प्रतिपल गम्भीर बना रहता । जो बने इन्द्रियों का स्वामी,
जो पर फा मन नहीं कहता ।।
(बगली पास में ना
!
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________________
७०
३५. गाथा
नासीले न विसीले वि
न सिया अइलोलुए । अकोहणे सच्चरए
सिक्खा सीले त्ति वुच्चई ॥
उत्त० अ० ११ गा० ५
अर्य
जो शील सम्पन्न हो। जो पुनः पुनः दोष न करता हो । जो अलोलुपी हो। जो शान्त रहता हो और सत्य पारायण हो उसे ही शिक्षाशील कहते हैं।
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________________
१. जो शोल धर्म का अनुरागी,
न बार - बार व्रत को तोड़े । जो रस के मोह से दूर रहे,
निज मन को शान्ति में जोड़े ।।
२. वत्त, शिक्षित का है निकष यही,
वह रसिक रहे नित सत्य फा। ★ महावीर ने यह सुवचन,
शिय शिष्य गौतम से कहा ॥
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________________
३६. गाथा
न वि मुण्डिएण समणो
न ओंकारेण बम्भणो । न मुणी रणवासेणं
कुसचीरेण न तावसो ॥
उत्त० अ० २५ गा० ३१
अर्थ
केवल सिर मुंडवाने से कोई श्रमण (साधु) नहीं होता । ओंकार बोलने से ही कोई ब्राह्मण नहीं होता। निरे अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और न ही वल्कल धारण करने से कोई तापस कहा जाता है।
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________________
१. सिर मुंडवाने से कोई,
श्रमण बन सकता नहीं । क्या ओम् पद के रटन से,
ब्राह्मण कहा जाता कहीं ? ||
२. चन-पास फरने से कभी भी,
मुनि पद मिलता नहीं । पया कुशा चीवर धार फर,
तापस बना जाता फहीं ? ॥
३ महत्व तो कुछ भी नहीं,
मात्म धर्म में वेप का । * महापोर ने यह सुववन,
प्रिय तिष्प गौतम से रहा।
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________________
७४
३५. गाथा
समयाए समणो होइ
बंभचेरेण बंभणो । नाणेण य मुणी होइ
तवेण होइ तावसो ॥
उत्त० अ० २५ गा० ३२
अर्थ
समता से ही व्यक्ति श्रमण होता है। ब्रह्मचर्य का पालन करने से ही व्यक्ति ब्राह्मण होता है । ज्ञान से ही साधक मुनि वनता है और इच्छा का निरोध करने से अर्थात् तप से ही व्यक्ति तापस होता है।
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________________
१
समता से साधक श्रमण बने,
और ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण है । सुज्ञान रहे तो मुनि बने,
तप से बने तपोधन है ।।
२. बाहरी साधन फा मूल्य नहीं,
मूल्य है दुनिया में गण फा। * महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिप्प गौतम में कहा ।
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________________
३८. गाथा
चीराजिणं नगिणिणं
जड़ी संघाडिमुंडिणं । एयाणि वि न तायन्ति
दुस्सीलं परियागयं ॥
उत्त० अ० ५ गा० २१
अर्थ
चीवर, मृगचर्म, नग्नत्व, जटा, संघाटिका और सिर का मुण्डन आदि वाह्य साधन किसी भी दुश्शील को दुर्गति से नहीं बचा सकते ।
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१. चीवर के धारण करने से,
साधक को ज्ञान नहीं होता। मृगचर्म धरे चाहे नग्न रहे,
उस का कल्याण नहीं होता ।।
२. चाहे जटाजूट रखे सिर पर,
चाहे गुदड़ी में काटे जीवन । चाहे लोच करे निज हायों से, __ चाहे करे सिर का मुण्डन ।।
३. ये बाहर के साधन सभी,
ऊँचा उठा सकते नहीं । चरित होन को दुर्गति से,
ये बचा सकते नहीं ॥
४. निर्माण की चावो है,
साधक के चरित को शुद्धता ।। ★ महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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________________
७८
३९. गाथा
उवलेवो होइ भोगेसु __ अभोगी नोवलिप्पई। भोगी भमइ संसारे
अभोगी विप्पमुच्चई॥
उत्त० अ० २५ गा० ४१ ।।
अर्थ
भोग में फंसा हुआ मनुष्य कर्म से लिप्त होता है । अभोगी कर्म से लिप्त नहीं होता। भोगी संसार में भ्रमण करता है और अभोगी-त्यागी संसार से मुक्त हो जाता है । अर्थात् वह दुख-सुख से ऊपर उठ कर आनन्द को प्राप्त करता है ।
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________________
१. भोग में आसक्त जो,
वह फर्म का बन्धन करे । भोग से जो दूर है,
न कर्म-चक्कर में पड़े ।।
२. आवागमन भोगो फरे.
अभोगी मक्त हो जाता । ★ महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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________________
४०. गाथा
जहा पोम्म जले जायं
नोवलिप्पइ वारिणा। एवं अलितं कामेहि
तं वयं बूम माहणं॥
उत्त० अ० २५ गा० २७
अर्थ
जैसे कमल पानी में उत्पन्न होने पर भी कीचड़ से लिप्त नहीं होता। वैसे ही जो संसार में रहते हुए भी काम वासना में लिप्त नहीं होता वस्तुतः वही ब्राह्मण कहलाने के योग्य है ।
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________________
(??)
?
८१
उगे,
पर कोच से ऊपर रहे ।
संसार में रह कर भी, जो संसार में फिर न फंसे ।।
फीच में पंकज
२. ऐसे हो साधक पुरुष को, अरिहन्त ने ब्राह्मण कहा ।
* ★ महावीर ने यह सुवचन, प्रिय शिष्य गौतन से पहा ॥
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________________
४१. गाथा
कम्मुणा बम्भणो होइ
कम्मुणा होइ खत्तिओ। वईसो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा ॥
उत्त• अ० २५ गा० ३३
अर्थ
मनष्य ब्राह्मण के योग्य कर्म करने से ही ब्राह्मण होता है। क्षत्रिय के कर्म से क्षत्रिय कहलाता है। वैश्य के कर्म द्वारा ही वैश्य होता है। शूद्र भी कर्म से ही होता है।
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________________
१. द्विज को व क्षत्रिय को,
इक फर्म ही पहचान है । वैश्य का व शूद्र का नित,
कर्म से ही ज्ञान है ।
२. संसार में तुम देख लो,
है कर्म को प्रधानता । * महापोर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य गौतम से कहा ।।
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________________
४२. गाया
अर्थ
ረ
जयं चरे जयं चिट्ठे
जयसासे जयं सए ।
जयं भुंजन्तो भासन्तो पावकस्मं न बन्धइ ॥
दश० अ० ४ गा० ८
जीव ध्यान पूर्व चलने, रहने, बैठने, सोने खाने और बोलने से पाप कर्म का बन्ध नहीं करता ।
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________________
१.
३.
४.
*
ध्यान व उपयोग से,
२. उपयोग से शयन
८५
हर काम करना चाहिये ।
देख कर के हो धरा पर, कदम धरना चाहिये ||
करे,
व ध्यान से बैठे - उठे ।
विवेक से भोजन करे नित,
सोच फर वाणी
चह
साधक कर्म जो भी करे,
नित ध्यान
-
यतना से करे |
रहेगा
कर्मयोगी,
फर्म वन्धन से परे,
यतना फर्म का प्राण है.
पतना फर्म को
कहे ।
दिव्यता |
महावीर ने यह पचन
प्रिय शिष्य गोतम से एहा ॥
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________________
४३. गाया
सव्वभूयप्पभूयस्स
सम्मं भूयाइ पासओ। पिहियासवस्स दन्तस्स
पावकम्मं न बन्धइ॥
दश० अ० ४ गा० ९
अर्य
जो प्राणिमात्र को अपने समान समझता है । उन पर समभाव रखता है। जो पाप कर्मों से दूर रहता है तथा जो अपनी इन्द्रियों को वश में रखता है। ऐसे संयमी पुरुष को पापकर्म का बन्ध नहीं होता।
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________________
१. जो विश्व के हर जीव को, हे समझता अपने समान । राग का और द्वेप का, जिसके नहीं मन में निशान ॥
२.
८७
पाप
★
से जो दूर रह,
मन - इन्द्रियों को वश करे ।
है संयमी ऐसा सदा हो, फर्म - बन्धन ते
३. मिलन हो सकता
परे ॥
नहीं,
समभाव का व पाप का ॥
महावीर ने यह सुवचन, प्रिय शिष्य गौतम से कहा ||
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________________
४४. गाथा
निम्ममो निरहंकारो
निस्संगो चत्तगारवो। समो अ सव्वभूएसु
तसेसु थावरेसु अ॥
उत्त० अ० १९ गा० ९०
अर्थ
महापुरुष ममत्व से रहित, अहंकार से शून्य, अनासक्त, गर्व का त्यागी और उस तथा स्थावर सभी प्राणियों पर समभाव रखने वाला होता है।
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________________
(१२)
१ ममत्व से मन दूर जिसका,
मान को न आग है। आसक्ति से जो मुदत है. ___ न गवं फा अनुराग है ।।
.
२. छोटे - बड़े हर जीव को,
समता की आंखों से लखे । महापुरुष वह संसार फा,
सामान्य जोवन से परे ।।
३. हर नयन म नर जगत पा,
उसफो नहीं पहनानता । * महापौर ने प. सुपचन,
प्रिय शिव नतम से पहा ।
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________________
४५. गाथा
अर्थ
९०
लाभालाभे सुहे दुक्खे
जीविए मरणे तहा ।
समो निन्दापसंसासु तहा माणावमाणओ
उत्त० अ० १९ गा० ९१
महापुरुष लाभ-हानि, सुख-दुख, जीवन-मरण, निन्दा, प्रशंसा और मानापमान आदि प्रत्येक स्थिति में समभाव रखता है ।
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________________
7.
7
४.
९१
में
कभी,
समभाव जो खोता नहीं ।
लाभ - हानि
सुख में कभी हँसे नहीं, दुख में कभी रोता नहीं ||
क्षणिक जीवन का कभी भी,
मोह जो करता नहीं. मृत्यु हो सन्मुख खड़ी पर, मन में जो डरता नहीं ||
छुप्ट फो निन्दा जिते,
आफुल बना सकती नहीं । सुजन फो श्रद्धाञ्जलि, जिन को लुभा सकती नहीं ।
मान पा फर भी कभी,
जो मान में आता नहीं । सन्मान मिल जाने पे जो,
अभिमान में आता नहीं ||
महापुरष यह समभाव पा मम कमी नहीं मूलता |
★ महावीर ने यह सुचन प्रिय शिष्य गौतम ने कहा ।
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________________
४६. गाया
इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि
इमं च मे किच्चं इमं अकिच्चं। तं एवमेवं लालप्पमाणं
हरा हरंति त्ति कहं पमाओ ॥
उत्त० अ० १४ गा० १५
अर्थ
____'यह मेरा है' और 'यह मेरा नहीं है ।' 'यह मैं ने कर लिया है 'और' यह अभी नहीं किया' इस प्रकार संकल्प-विकल्प करने वाले मनुष्य के आयुष्य को काल रूपी चोर हरण करते रहते हैं। अरे जीव ! फिर तू क्यों प्रमाद में पड़ा है ?
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________________
१. 'यह है मेरा' 'वह मेरा' नहीं,
मूर्ख नर यह कहता है । 'यह हो चुका है' यह है करना,
संकल्प नदी में बहता है।
२. ऐसे नर के जीवन धन को,
काल - चोर हर ले जाता । रे अज्ञानी ! सुन जिन वाणी,
क्यों प्रमाद नहीं तजता ॥
३. फाल के आगे यह जीवन,
है. सदा हो हारता । ★ महावीर ने यह सुवचन,
प्रिय शिष्य मातम से पहा ।।
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________________
४७. गाया
वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते
इमम्मि लोए अदुवा परत्था ।
दीवप्पणट्ठे व अनंत सोहे नेयाज्यं दट्ठमट्ठ सेव ॥
अर्थ
उत्त० अ० ४ गा० ५
पापी पुरुष इस लोक में तथा परलोक में कहीं भी धन के बल पर अपने कर्मों के फल मे नहीं बच सकता । अनन्त मोह के कारण प्राणी का ज्ञान दीप बुझ जाता है । वह न्याय मार्ग को देखता हुआ भी न देखते हुए को तरह काम करता है ।
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________________
१. धन से कभी भी पाप-फल से,
वाण हो सकता नहीं । इस लोक में परलोक में, .
फल्याण हो सकता नहीं ।।
२. ज्ञान का दीपक बुझे नित,
मोह के संज्ञावात में । न्याय - पथ से दिखे,
फिर मोह को फालो रात में ।।
.
.
३. धन का भरोमा न करो,
ठो है जग की सम्पदा । * महावीर ने प. सदनन.
प्रिय सिप्प नीता से पहा ।।
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________________
४८. गाथा न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ
न मित्तवग्गा न सुया न बन्धवा । एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं
कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं ।
उत्त० अ० १३ गा० २३
अर्थ
जीव के दुख में उसके सम्बन्धी हिस्सा नहीं बटाते । मित्र वर्ग, पुत्र तथा अन्य भाई वान्धव कुछ भी सहायता नहीं कर सकते । यह जीव अकेला ही अपने कर्मों का भोग करता है क्यों कि नियम है कि कर्ता के पीछे ही कर्म जाता है।
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________________
(?)
१. पूर्व फर्म के दोष से,
जब जीव को दुख घेरता है । अपना कोई बनता नहीं, ___हर मित्र आंखें फेरता है ।।
२. अपना सगा परिवार,
निज को छोड़ देता है । ____नेह के सूत्र पलक में,
तोड़ देता है ।
३. स्वय हो यह आत्मा,
है दुख सारा भोगता । संग जाता है कर्म,
यह जीव को नहीं छोड़ता ।।
४. निठर है जग में कर्म,
पहन फरे दिल्गुल पना। ★ महावीर ने यह मुक्यन,
प्रिय शिव गौतम से पहा ।।
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________________
४९. गाथा असंखयं जीविय मा पमायए ___ जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं विजाणाहि जणे पमत्ते किण्णु विहिंसा अजया गहिन्ति ।।
THI
उत्त० अ० ४ गा० १
अर्थ
जीवन का सूत्र एक वार टूट जाने पर फिर जड़ता नहीं। बुढ़ापा आने पर कोई रक्षक नहीं होगा। जो पापी हैं, हिंसा में रत हैं और संयम से होन हैं, वे अन्त में किस की शरण लेगे?
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________________
१. जव आयु की शाखा से,
यह जीवन पुष्प झरता है । न कोई विश्व का विज्ञान,
उसे फिर जोड़ सकता है।
२. तेरे उन्मत्त यौवन को,
बुढ़ापा जब दवायेगा । तुझं इस फर्म फल से,
फोन फिर आकर बचायेगा ।
३
हे प्रमाद के राही ! तू,
जीपन - ज्ञान पंसे पायेगा?। हिसा, असंयम, पाप से,
तू प्राण फंसे पायेगा ।
४. धर्म का मार्ग पकड,
और छोट मागं पाप का । * महादोर ने यह सुपचन,
प्रिय मिर गौतम से पहा ॥
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________________
५०. गाथा तस्सेस मग्गो गुरुविद्धसेवा
विवज्जणा बालजणस्स दूरा। सज्झायएगंत निसेवणा य
सुत्तत्थ संचितणया धिई य॥
उत्त० अ० ३२ गा० ३
अर्थ
गुरु और वृद्ध जनों की सेवा, अज्ञानी लोगों की संगति का परित्याग, धर्म शास्त्रों का स्वाध्याय, एकान्त-स्थान में वास, सूत्र तथा उसका अर्थ चिन्तनअर्थात् आत्म-चिन्तन और धैर्य-यानी प्रतिकूल स्थिति में समभाव रखना, यही वस्तुतः मोक्ष-अर्थात् शान्ति का मार्ग है।
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________________
१०१
१. गुरु जन फो, वृद्ध को,
सेवा बजाना चाहिये । साधका पुरुष को बाल
जन से दूर जाना चाहिये ।
२ स्वाध्याय के फरने में,
अपना मन लगाना चाहिये । एकान्त में रह फर, .
दुख से त्राण पाना चाहिये ।
३
सूत्र को और नर्थ को,
दिल में बिठाना चाहिये । प्रतिकूलता यदि हो तो फिर,
धीरज दिखाना चाहिये ।
८. ध्यान में रखना सदा,
मार्ग वही है मोक्ष तार * महावीर ने त मुदचन,
Eि गंतन से पहा ।।
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५१. गाथा
सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी
न वीससे पंडिए आसुपन्ने । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं
भारंडपक्खीव चरेऽप्पमत्ते ॥
उत्त० अ० ४ गा० ६
अर्थ
मोह निद्रा में सोये हुए लोगों के बीच बुद्धिमानपंडित पुरुष नश्वर जगत का कभी भी विश्वास न करे। काल बड़ा भयंकर है। शरीर निर्बल है । अर्थात् काल का मुकाबला वह नहीं कर सकता । ऐसा समझ कर जानी पुरुष भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त-अर्थात् दुनिया में सदैव जाग्रत हो कर रहे--कभी भी अपने आत्मा और उसके विशुद्ध सत् धर्म को भूले नहीं।
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१०३
१. हैं जगत के प्राणी सभी,
मोह नींद में सोये हुए। हैं भोग के नश्वर सुखों में,
भान निज खोये हुए ॥ २. जगत के झूठ विभव को,
आश न पंडित फरे । ___य रहेंगे संग यह.
विश्वास न पंडित करे ॥
1. फाल फा प्रहार नियंल,
तन कभी न सह सकेगा। फाल की आन्धो में,
जीवन-दीप न यह रह सफेगा ।।
४ प्रमत्त हो फर न कभी,
संसार में ज्ञानी रहे । भारंट पक्षी को तरह.
नित सावधानी से रहे । ५. जीव या ना नही.
संसार में प्रमाद ना ! * महावीर ने यह सुरक्षन,
निर गौतम हा ॥
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.१०४
५२. गाया
उड्ढं अहे य तिरियं
जे केइ तसथावरा । सव्वत्थ विरई विज्जा संति निव्वाणमाहियं ॥
सू० ध्रु० १ अ० ११ गा० ११
अर्थ
ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यग् लोक इन तीन लोकों में जितने भी त्रस और स्थावर जीव हैं। उन के अतिपात से निवृत्त हो जाना चाहिये। वैर की उपशान्ति को ही निर्वाण कहा गया है।
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(१४)
१०५ १. ऊचं, अधः और मयं लोक,
यह लोकत्रय है पुरुषाकार । अनन्त, अनादि और शाश्वत,
चौदह राजू का विस्तार ।।
२. जितने भी हैं जोव फर्म संग,
इसी लोक में रहते हैं । कभी न हिसा फरे किसी को,
धर्म सूत्र सब कहते हैं ।।
३. वर से निवृत्त होना.
दुख का अवसान है। इस लोक में परलोक में,
इफ शान्ति हो निर्वाण है ।।
१. न परे अपहरण जग में.
जीप . प्रिय प्रान पा। ★ महाबोर में यह मुदचन,
प्रिय मिप्य गौसम से कहा ॥
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५३. गाया
अर्थ
१०६
अपुच्छिओ न भासेज्जा
भासमाणस्स अंतरा ।
पिट्ठिमंसं न खाइज्जा मायामोसं विवज्जए ॥
दश० अ० ८ गा० ४७
साधक बिना पूछे नहीं बोले । बातें करते हुए लोगों के बीच जा कर नहीं बोले । पीठ पीछे किसी को निन्दा न करे । कपट- युक्त वाणी न बोले ।
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१०७
१. पूछे बिना अपनी सम्मति,
न किसी को बोलिये । दो जनों के बीच जाफर, __ व्ययं न मुंह खोलिये ॥
२. दूर जा पर भी किसी की,
न फभी निन्दा फरे । सरल हृदय से रहे,
न छल - फपट मन में घरे ।
.. इन चार बातों में छिपी,
जीवन को सच्चो सफलता । ★ महावीर ने यह सुपचन,
प्रिय शिष्य गौतम से पहा ।।
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५४. गाथा
जरा जाव न पीडेइ
वाही जाव न वड्ढई। जाविदिया न हायंति . ताव धस्मं समायरे ॥
दश० अ० ८ गा० ३६
अर्थ
जब तक बुढ़ापा नहीं आता। रोग जब तक बढ़ कर जीवन को घेर नहीं लेते और इन्द्रियों की शक्ति जब तक क्षीण नहीं हो जाती, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए-अर्थात् मरणासन्न होने पर कुछ भी सुकृत नहीं होगा।
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१०९
१. इस तन के यौवन-रूप पर,
जव तक बुढापा न चढ़े । इस स्वस्य-सुन्दर देह में,
जब तक व्याधि न बढ़े।
२. इन्द्रियों को शक्ति भी,
यह हीन न जब तक घने । तव तलफ चाहिये पुरुष को,
धर्म का साधन परे ।
३
कर मोदन एक छः :.
जाधिोरा वा । महावीर मे पर सुशासन,
मि लिप नाममा ..
*
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५५. गाया
अयं
११०
जा जा बच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई ।
धम्मं च कुणमाणस्स सफला जन्ति राइओ ||
उत्त० अ० १४ गा० २५
जो जो रात्रियाँ बीत जाती हैं, वे फिर लौट कर वापिस नहीं आतीं । धर्म करने वाले व्यक्ति की रात्रियाँ सदा सफल होती हैं ।
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१. आकर रात जीवन में,
जो आगे है निकल जाती। नमक्ष लो, सोच लो दिल में,
नहीं वह लौट कर आतो ।।
२. जीवन को मौन रातों में,
जो प्राणी धनं कर लेगा। सफलता के मदु अमी से,
यह जीवन-पालश भर लेगा।
इस दुर्गा मामय काम मे,
जो बने जल्यो वा ! * मार में वर मुसा,
लिप नतम ता ।
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११२
५६. गाथा
जरामरण वेगेणं
वुज्झमाणाण पाणिणं। धम्मो दोवो पइट्ठा य
गई सरणमुत्तमं ॥
उत्त० अ० २३ गा० ६८
अर्थ
संसार रूपी समुद्र के जरा और मरण रूपी प्रवाह में बहते हुए प्राणी के लिये धर्म ही एक मात्र द्वीप है। आधार और उत्तम शरण है।
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१. संसार सागर में जरा
और एरण का प्रवाह चले । फर्म के परवश हुए,
है जोव इस में रह रहे ।।
२ ससार को हर चीज,
साधक के लिए निस्तार है। इफ धर्म हो है होप,
उत्तम शरण व आधार है ।।
६. पूरते प्राणो फो जग में,
। महारा धर्म हा। ★ महायोर में पाचन,
प्रिय मिट पहा :!
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११४
५७. गाया
तवोगुणपहाणस्स
उज्जुमइ खंति संजमरयस्स । परीसहे जिणन्तस्त
सुलहा सुगई तारिसगस्स ॥
दश० अ० ४ गा० २७
अर्थ
जो साधक तपगण में प्रधान है-अर्थात् घोर तपस्या करता है। जिसका हृदय सरल है, जो क्षमा
और इन्द्रिय-संयम में सदा लीन रहता है । जो जीवन में आए हुए प्रत्येक कष्ट को समभाव पूर्वक सहन करता है। ऐसे साधक के लिए सुगति-अर्थात् मोक्ष अति मुलभ है।
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१. जो साधक अपने जीवन में,
नित घोर तपस्या करता है । जो क्षमा, सरलता संयम के,
उत्तम-पथ पर पग घरता है ।।
२
जो जीवन में पर्य - बल से
हर एफ परिसह महता है । नित समता रस में लोन रहे,
न उफ तफा म पाहता है।
३. पर न मटपे. मय-सागर में,
गर गलि उससे मुलमा । * माचोर ने पर गुपचन,
धि frre कम में पता ॥
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११६
५८. गाया
न वा लभेज्जा निउणं सहायं __ गुणाहियं वा गुणओ समं वा। एगो वि पावाइं विवज्जयंतो
विहरेज्ज़ कामेसु असज्जमाणो॥
उत्त० अ० ३२ गा० ५
अर्थ
यदि किसी को अपने से अधिक या समान गुण वाला योग्य सहयोगी न मिले तो वह अपने आप को पापों से दूर रखता हआ और भोगों के प्रति अनासक्त रहता हुआ एकाकी ही विचरण करे किन्तु अपने मे हीन गण वाले की संगति कदापि न करे ।
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?.
११७
यदि न मिले जो गुण में हो,
ऊँचा चढ़ा
ज्ञान में और चरित
आगे बढ़ा
४
हुआ ।
में,
२. अपने समान गुण का भी,
साथी जो न
संयम सुपय का वह पथिक, इफला हो फिर चले "1
हुआ ।
३. दूर रह कर पाप से,
सनभाव मे
पर भूलकर भी नोच को, संगति यह न परे ॥
महाव्ह
मिले |
विचरे ।
असंयमी ऐ नंग हे..
तुम दूर हो रहा सदा ।
पचन,
प्रिय दिव्य नीतम मे
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५९. गाया
अर्थ
११८
जे य कन्ते पिए भोए
लद्धे वि पिट्ठीकुव्वइ ।
साहीणे चयइ भोए से हु चाइ त्ति बुच्चइ ॥
पर भी उन से मुंह विषयों को भी नहीं त्यागी कहा जाता है ।
दश० अ० २ गा० ३
जो प्रिय और कमनीय भोगों के उपलब्ध होने मोड़ लेता है और जो हस्तगत भोगता । वस्तुतः वही सच्चा
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ܕ
११९
जो प्रिय भोगों से सदा हो,
पीठ मोड़ फर
प्राप्त भोगों पर कभी जो,
रहे ।
आंख तक भो न घरे ||
संसार में यह पुरुष ही, त्यागी पहा जाता ॥
महावीर ने यह सुपचन.
विश्व गीतम ने कहा ||
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६०. गाथा
न तं अरी कंठछित्ता करेइ ___जं से करे अप्पणिया दुरप्पा । से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते
पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ॥
उत्त० अ० २० गा० ४८
अर्थ
दुराचार में अनुरक्त प्राणी जितना अनिष्ट करता है उतना अहित तो गला काटने वाला शत्रु भी नहीं करता । ऐसा निर्दयी मनुष्य मृत्यु के आने पर अवश्य अपने दुष्कृत को समझ कर पश्चाताप करेगा।
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१२१
१. इस जीवन का घातफ शत्रु
फ.प्ट नहीं इतना देता । दुराचार से अनुरक्त नर,
है जितना दुख बढ़ा लेता ।।
२. इस जीवन का अन्त समक्ष लो ,
एक जन्म की हानि है । पर दुप्टात्मा का जीवन तो,
जन्म-मरण को खानि है ।।
३. दयाहीन नर पाप फर्म से,
यदि दाज न जाएगा । मृत्यु-नस में पड़ा हला यह,
मिर धुन धुन पडताएगा ।।
४. दुराचार का उमर लोप में,
*
मादोर ने पर गुपयन,
कि गौतम से पहा ]
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१२२
६१. गाया
एयं खु नाणिणो सारं
जंन हिंसइ किंचण । अहिंसा समयं चैव
एयावन्तं विजाणिया ॥
सू० २० १ अ० ११ गा० १०
अर्थ
ज्ञानियों के उपदेश का यही सार है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । अहिंसा ही शास्त्रसम्मत धर्म है। बन इतना मात्र ही विज्ञान है।
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१. न फरे हिसा किसी की,
ज्ञान का यही सार है । हिंसा कर्म में रत मनुष्य फा,
जान सब निस्सार है ।।
6. विश्व हे निखिल धर्मों में,
___ अहिंसा हो प्रधान है ! अहिंसा का आविष्कार हो,
मुख-मय विज्ञान है ।
३. संसार के हर मं को.
महिला मामा ! * महावीर ले र सुपचण,
दिनांकमा:
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१२४
६२. गाथा
दुमपत्तए पंडुयए जहा
निवडइ राइगणाण अच्चए। एवं मणुयाण जीवियं
समयं गोयस! मा पलायए ।
उत्त० अ० १० गा० १
अर्थ
दिन व रात्रि के अनुक्रम से जैसे वृक्ष के पत्ते पीले हो कर झड़ जाते हैं । ऐसे ही यह मनुष्य जन्म एक दिन आयप्य की शाखा से गिर जाता है। इसलिए हे गौतम ! क्षण मात्र का भी प्रमाद करना उचित नहीं।
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१. तरुवर के हरे भरे पत्ते,
क्या अदभुत शोभा पाते हैं ! वे फाल चक्र से बन्धे हुए,
पोले हो फर गिर जाते हैं ।।
२. आयुष्य कर्म की शाखा से,
यह जीवन भी गिर जाता है । अनन्त काल के बाद फहीं,
फिर मानव भव में साता है ।
३
इस सुअवसर फो पा फरके,
न व्यर्थ इसे वरवाद करो। अमर साधना के साधक !
हे गौतम ! मत प्रमाद फरो !
प्रसाद
४. प्रमाद हो तो मूल है,
इस जीव के मद का का! * महादोर ने यह सुचन.
प्रिय शिव गौतम से पहा ।।
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६३. गाथा
कुसग्गे जह ओबिंदुए
___ थोदं चिठ्ठइ लंबमाणए। एवं मणुयाण जीवियं
समयं गोयम! मा पमायए ।
उत्त० अ० १० गा०२
अर्थ
जैसे कुशाग्र भाग पर लटकते हए ओस के विन्दु अल्प जीवी ही होते हैं। ऐसे यह मानव जीवन भी क्षणनंगुर है। अतः गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।
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१२७
2, जो ओसरण नम से गिरे,
वे कुशा संक में ठहर गये । जव लगा रवि का ताप उन्हें,
वे सिहर उठे और विखर गये ।।
२
यह नरवर जीवन मानव का भी,
पल भर में मिट जाता है। अनन्त काल के बाद वहीं,
फिर मानव भव में आता है ।।
३. इस दुर्लम जीवन को पा पार
नएं इसे बरवाद प.ते। मात्म - शान्ति के साधकः,
है गौतम ! मत प्रमाद एते ।।
.. प्रमाद चा : विपद पार,
म, निद्रा विपदा ।
cिe for
:
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६४. गाथा
जणवय सम्मय ठवणा
नाम रूबे पडुच्चेसच्च य । ववहार भाव योगे
दसमे ओवस्म सच्चे य ।
प्रज्ञापना सूत्र भाषा-पद
अर्थ
सत्य दस प्रकार का होता है
जनपद, सम्मत, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीत, व्यवहार, माव, योग और उपमा सत्य ।
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१२९
१. सत्य के नानात्व का,
है अपेक्षावाद आधार । स्थाद्वाद अन्वय करे,
मिले सत्य साफार ।।
२. जनपद, सम्मत, स्थापना,
नाम, रूप व्यवहार । भाप, योग, उपमा, प्रतीत,
सत्य फे दस प्रकार ।।
३. सत्य गायत एए..,
पर रप गाना धारता । * महावीर में पा गुपचन,
हिद मिनतम मे रहा ।।
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६५ गाथा
कोहे माणे माया लोभे
पेज्जे तहेव दोसे य । हासे भए अक्खाइय
उवघाए निस्सिया दसमा॥
प्र० साषा पद
अर्थ
क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, ढेप, हस्य, भय, कल्पित वचन (व्याख्या) तथा उपघात-हिंसा के निमित्त से जिस भाषा का प्रयोग किया जाए वह सत्य प्रतीत होने पर भी असत्य हो कही जाती है।
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१३१
१. फ्रोधी नर, अभिमानो के.
न वचन ययार्य होते हैं । इन पर जो विश्वास करे,
वे आंखें भर - मर रोते हैं । २. फपटी नर और लोभी के,
न निकट सत्य भी माता है । जो नर इन पर विश्वास करे,
यह जीवन भर दुःप पाता है ।। ३. जहां राग द्वेष फा शासन हो,
यहां सत्य फभी न बात करे । ऐसे लोगों के वचनों पर,
न सुन पानी विश्वास करे ।। ४. जो वचन हास्य में यह जाये,
या मय फा जिस में पास रहे । इन चचल दुल वचनों में,
न फमो सत्य - नुवास रहे ।। ५. जो पचन पल्पना से निकले,
हो जिसमें हिंसा माद मरा । ऐसे पचनों को मागम ने.
नहीं रभो भी सत्य रहा ।। १. जो हितमय हो, मंगलमय हो.
यही पचन हैमन्य सदा । * भादौर में रह सुदान,
दिर गिर गौतन से कहा !!
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६६. गाया
अर्थ
१३२
खेत्तं वत्थं हिरण्णं च
पुत्तदारं च बन्धवा ।
चइत्ता णं इमं देहं गन्तव्वमवसस्स मे ।।
:
उत्त० अ० १९ गा० १७
प्रत्येक मनुष्य को यह चिन्तन अवश्य करना चाहिये कि मुझे एक दिन भूमि, घर, सोना-चाँदी, पुत्र, स्त्री, सगे-सम्वन्धी यहाँ तक कि इस शरीर तक को भी छोड़कर इस दुनिया से अवश्य जाना पड़ेगा ।
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१३३
सोचना चाहिये मनुज फो. एक दिन वह जायगा ।
यह भवन और खेत, उपवन,
Y
फाम न कुछ आएगा ॥
२. स्वर्ण चान्दी के विपुल, भण्डार सब रह जायेंगे
पुत्र, नारी, माई बान्धव, वाट फर सवं खायेंगे ||
2. रह जायेंगे वस, यह तेरा
यह शव जलाने के लिए ।
रह जायेगा तू हो पेला, दुख उठाने के लिए ॥
स्वयं ही नर ! पाव पा
I
नभरि पर उठा ।
महावीर ने सुन
दिन मे ॥
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१३४
६७. गाया
..
सुवण्ण रुप्पस्स य पव्वया भवे
सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि इच्छा हु आगाससमा अणंतिया।
. उत्त० अ० ९ गा० ४८
अर्थ
सोने और चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत भी यदि किसी के पास हो जाये तो भी लोभी मनुष्य के लिए वे कुछ भी नहीं क्योंकि इच्छा आकाश की तरह अनन्त होती है।
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२, लोभी मनुष्य को जगत में भो,
सुख कभी मिलता नहीं । मन के सरोवर में फमल,
सन्तोष का खिलता नहीं ।।
२. स्थणं के और रजत के,
फलाश जिसके पास है । लोभ के कोटे वे फिर भी,
यासना के दास है ॥
३
अनन्त नभ का डोर जैसे,
फोई पा सकता नहीं । मानप हो इछा फा भो.
ऐसे अन्त ला सपता नहीं ।।
:, लोभ हो तो शप :,
संसार में हर पार हा: * मार में यह मुएनन
निय शिद नौतम परा
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६८. गाया तेणे जहा संधि महे गहीए ___ सकम्मणा किच्चइ पावकारी। एवं पया पेच्च इहं च लोए
कडाण कम्माण न मुक्ख अस्थि ।।
उत्त० अ० ४ गा०३
जैसे चोर सेंध के मुख पर ही पकड़ा जाने पर अपने पापकर्म से दुख उठाता है ऐसे ही पापी जीव इस लोक तथा परलोक में अपने कर्मों का फल भोगता है। कृत कर्म को भोगे विना जीव का छुटकारा नहीं होता।
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( १८ )
१
?
१३७
सन्धि मुख का चोर अपने
को छुपा सकता
नहीं,
दुष्कर्म के परिणाम से निज को बचा सकता नहीं ||
अज्ञान में पापी नहीं है,
को छोड़ता ।
पाप - पप
इस लोक में परलोक में.
यह पाप का फल भोगता ।
इस जीव की मुक्ति नहीं, मोगे बिना फल फर्म का 1
★ महावीर ने यह सुचन मनसे हा ॥
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६९. गाया
. सरीरमाहु नावत्ति
जोवो वुच्चइ नाविओ। संसारो अण्णवो वुत्तो
जं तरंति महेसिणो ॥
उत्त० अ० २३ गा० ७३
अर्थ
शरीर को 'नावा' और जीव को नाविक' कहा गया है। इस संसार को समुद्र कहा है। इसे केवल महर्षि पुरुष ही पार कर सकते हैं। .
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१. संसार है सागर तो,
तन नौका समान है । जो जीव है नायिक बना,
कितना महान है !!
२
जो है महर्षि पुरष वह,
उस पार जाता है । मोक्ष के तौरों पे यह,
आनन्द पाता है।
३. इस माय पो संसार है,
न मोह - संपर में स संसा। * मापीर में पर अपचन,
हिर नौशन में पा !
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७०. गाथा ... .
... तवो जोई जीवो जोइठाणं __ जोगा सुया सरीरं कारिसंग। कम्मेहा संजमजोगसंती
होमं हुणामि इसिणं पसत्थं ॥
. उत्तही
.
उत्त० म० १२ गा० ४४
....
अर्थ
___ तप अग्नि है और यह जीव अग्नि-कुण्ड है । मन वचन तथा काया का योग ही जुव है। यह शरीर कारिपांग-यज्ञ की सामग्री है। कर्म ही ईन्धन है । संयम हो शान्ति पाठ है। जिले ऋषियों ने प्रशस्त कहा है। ऐमे होम से में यज्ञ का अनुष्ठान करता हूँ।
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१४१
१. इस जीव अग्नि - कुण्ड में,
तू तप को अग्नि ले जला । इस मन, बचन व फाया के,
त्रियोग को तू लव बना ।।
. इस शरीर • फारियांग में,
तू प.र्म - ईन्धन फो जला । संयम के शांति - पाठ से,
तू आत्मा को शुद्ध बना ।।
३. क. पाप वपन दिया,
जिगर में जाम-पासा। * महावीर ने पह, मुययन,
दिलित न पहा ।
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७१. गाया
धम्मे हरए बम्भे सन्तितित्थे
अणाविले अत्तपसन्नलेसे । जहि सिणाओ विमलो विसुद्धो सुसीइभूओ पजहामि दोसं ॥
.
उत्त० अ० १२ गा० ४६
अर्य
धर्म रूपी जलाशय है । ब्रह्मचर्य शान्ति तीर्थ है । कालुष्य रहित आत्मा प्रसन्न लेश्या है। ऐसे जलाशय में स्नान करने से आत्मा निर्मल और विशुद्ध हो जाता है। इस तरह में अत्यन्त शीतल हो कर कपाय आदि दोषों का परित्याग करता है।
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१४३
2. धर्म है मेरा सरोवर,
ब्रह्मचर्य शान्ति घाट है । दोष रहित जीव में,
शुभ भाव ही सम्राट् है ।।
२
इस जलाशय में नहा कर,
आत्मा निर्मल हुआ । में परम शीतल हो गया,
जर दूर सय फालिमल हुआ ।
३. पमं ऐ तो सरोघर में
होनू निगदिन नहा ।
रिलिद तसे पा॥
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७२. गाया
१४४
भावणा जोग सुद्धप्पा जले गावा व आहिया ।
नावा व तीर सम्पन्ना
अर्थ
1
सव्व दुक्खा तिउट्टइ ॥
सु० श्रु० १ अ० १५ १० ५
जैसे नौका किनारे पर पहुँच कर प्रत्येक संकट से पार हो जाती है ऐसे ही साधक जिसकी आत्मा भावना योग से शुद्ध होती हैं, वह सब कर्मों से मुक्त होकर दुखों से रहित हो जाता है ।
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१४५. १. भावना - योग से यह मात्मा,
गुद्धि को पाता है। इस संसार सागर की,
यही नौका फहाता है !!
२. फिनारे से लगी नावा,
विपद रे. पार जाती है। नहीं तुफान के न भंवर फे,
चपकार : में: बातो है ।
३. मोक्ष के तौर पर यह.
आत्मा मानन्द पाता है । नहीं फिर गुरु प. व दुर यो.
पाचन में आता: ॥
४.
पास जितन हो:
जाम • मापना में बना । महापौर ने दह मुपसन.
Fि frre नतर से पता
*
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जितने वर्ष वीर प्रभु के,
इस धरती पर चरण रहे। महावीर की वाणी से,
मैंने उतने हो सूक्त कहे ।।
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पारिभाषिक तथा कठिन शब्दों के अर्थ
निर्जरा-कर्मों का जीव ने अलग हो जाना। अकाम परवगता में बिना इच्छा के निर्जरा । कष्ट
सहने से होने वाला कर्मो का धय । दुर्जय=जिसे जीतना कठिन हो । गुमट योधा। देदीप्यमान-प्रकापमान । श्रुतनानगाल्न का मान । असम्बद्ध प्रलापी= विना सिर पर की बातें करने वाला। प्रमाद= विषय, कपाय, निद्रा, मद, तथा विकथा को
प्रमाद कहते हैं। कपाय = मोध, मान, कपट तथा लोभ को कपाय पाहते हैं। विकावा--काम-क्रोध तथा मोह को बढ़ाने वाली बातें
करना ही विकया है। लोलपी गोगों नया रनों में आगमन व्यगिन । भरप-बन। नार पक्षी : एक माली जिम के कोनन ।
जानी।
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१४८
हस्तगतप्राप्त । शास्त्रसम्मत-शास्त्र द्वारा माना हुआ। कुशाग्र-कुशा का अग्र भाग । क्षणभंगुर शीघ्र नष्ट होने वाला। उपघात-हिंसा। असजीव-वे जीव जिन का दुख सुख व्यक्त होता है।
द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक सव जीव यस कहलाते हैं। ये सव जीव हिलते-चलते
हुए नजर आते हैं। स्थावरजीव=वे जीव जिनका दुख-सुख अव्यक्त होता है।
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति ये सब जीव स्थावर कहे जाते हैं। ये हिलते चलते हुए
दृष्टिगोचर नहीं होते। चीवर वस्त्र । संघाटिका गोदड़ी। उद्भूत = कट । शुः =उज्जवल । दृष्ट=देखा हुआ। परिमित-थोड़ा। असन्दिग्ध-सन्देह रहित । अनुभूतअनुभव में आया हुआ । वाचालता=अधिक बोलना। उद्विग्नकारक-मन को व्याकुलता देने वाला । जवं लोक-ऊपर का लोक-स्वर्ग । तिवंग लोक मयं लोक । मध्यलोक ।
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असंविभागी=चीज को न बांटने वाला । अप्रीतिकर अप्रिय । वल्कल=वृक्ष की छाल । ममता सब पर नमभाव रखना । आयुष्य =आयु । अधोलोक नीचे का लोक-नरक आदि । अनिष्ठ-अहित । जनपद सत्य --प्रत्यंगा देग की मान्य भाषा में बोलना। सम्मत =जो शब्द जिस अर्थ में प्रयुक्त होता है उसे उसी
तन्ह मान्य गर में बोलना। चापना - किनी भी बस्तु या व्यक्ति की आरति आदि
को उनी कप में पहना । नाम :- गा रहित होने पर भी किनी पन्तु व व्यक्ति को
उन नाम से पुकारना । प. बाजारपया वेप को देय पर उगे ने ही पहना । प्रतीनः किनी पाया व्यक्ति को अपेक्षा ने अलग
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वैतरणी नदी-नरक की एक नदी। (एक पौराणिक नदी
पृथ्वी और यमलोक के बीच में वहती है । जिस का जल गरम है। पापी इसमें बहुत दिनों तक
दुख भोग करते हैं।) कामधेनु स्वर्ग की एक गाय । नन्दनवन=इन्द्र का उद्यान । शठता-दुष्टता। परिभ्रमण=घूमना। विजेता-जीतने वाला। कारिपंग यज्ञ की सामाग्री। जलाशय-तालाव। प्रसन्न लेश्या=मन का शुभ भाव ।
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