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५१. गाथा
सुत्तेसु यावी पडिबुद्धजीवी
न वीससे पंडिए आसुपन्ने । घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं
भारंडपक्खीव चरेऽप्पमत्ते ॥
उत्त० अ० ४ गा० ६
अर्थ
मोह निद्रा में सोये हुए लोगों के बीच बुद्धिमानपंडित पुरुष नश्वर जगत का कभी भी विश्वास न करे। काल बड़ा भयंकर है। शरीर निर्बल है । अर्थात् काल का मुकाबला वह नहीं कर सकता । ऐसा समझ कर जानी पुरुष भारंड पक्षी की तरह अप्रमत्त-अर्थात् दुनिया में सदैव जाग्रत हो कर रहे--कभी भी अपने आत्मा और उसके विशुद्ध सत् धर्म को भूले नहीं।