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२८. गाथा
अवि पाव परिक्खेवी
अवि मित्तेसु कुप्पई । सुप्पियस्सावि मित्तस्स
रहे भासइ पावयं ॥
उत्त० अ० ११ गा० ८
अर्थ
(५) जो गुरु जनों का तिरस्कार करने वाला हो। (६) जो घनिष्ट मित्रों पर भी क्रोध करता हो। (७) जो हितैषी मित्र को भी पीठ पीछे बुराई फरता हो।