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३६. गाथा
न वि मुण्डिएण समणो
न ओंकारेण बम्भणो । न मुणी रणवासेणं
कुसचीरेण न तावसो ॥
उत्त० अ० २५ गा० ३१
अर्थ
केवल सिर मुंडवाने से कोई श्रमण (साधु) नहीं होता । ओंकार बोलने से ही कोई ब्राह्मण नहीं होता। निरे अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और न ही वल्कल धारण करने से कोई तापस कहा जाता है।