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१४. गाया
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अप्पा कत्ता विकत्ता य
दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च
दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ ॥
उत्त० अ० २० गा० ३७
अर्थ
आत्मा स्वयं ही दुख-सुख को उत्पन्न करता है और स्वयं ही नाश करता है। सत्पथ पर चलने वाला आत्मा स्वयं अपना मित्र है और असत पथगामी आत्मा स्वयं ही अपना शत्रु है।