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अलबेली आम्रपाली ६
भीत पर एक विशाल दर्पण लगा हुआ था। आम्रपाली उस ओर न देखती हुई स्नानगृह के द्वार की ओर मृदु चरणों से चल पड़ी।
माध्विका ने द्वार खोला।
बाहर शिशिरा और अन्य दो परिचारिकाएं खड़ी थीं। एक परिचारिका के स्वर्णपात्र में कौशेय की पादरक्षिकाएं थीं। ज्योंही आम्रपाली बाहर आई, उसने उन्हें सम्मुख रख दिया। आम्रपाली ने दोनों पैरों में कौशेय की पादरक्षिकाएं पहनकर शिशिरा से पूछा-''क्यों ?"
"देवी ! भोजन तैयार है।" "क्या पिताजी भोजन कर चुके हैं ?"
"नहीं, वे संध्या समय से ही अपने कक्ष में गम्भीर मुद्रा में बैठे हैं"-शिशिरा ने कहा।
आम्रपाली ने माध्विका की ओर देखकर कहा- "मैं वस्त्र पहनकर भोजनगृह में आ रही हूं । तू पिताजी को लेकर वहां आ जा।"
"जी", कहकर माविका चली गई।
आम्रपाली अपने वस्त्रगृह में गई। वहां दो परिचारिकाएं प्रतीक्षा मे खड़ी थीं। एक त्रिपदी पर स्वर्ण का थाल पड़ा था। उस थाल में आम्रपाली के धारण करने योग्य रात्रिकालीन कौशेय वस्त्र थे।
आम्रपाली एक परिचारिका की ओर उन्मुख होकर बोली-"रेणुका ! विलंब नहीं होना चाहिए।"
वस्त्रों को धारण कर आम्रपाली ने आदमकद दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखा।
रेणका ने अंजनशलाका तैयार की। इतने में ही माध्विका ने वस्त्रगृह में प्रविष्ट होकर कहा-'देवि...!"
"क्या पिताजी भोजनगृह में चले गए ?"
"नहीं। वे कुछ चिन्ताग्रस्त-से लगते हैं । उन्होंने भोजन करने से इनकार किया है।" ___ "उनका स्वास्थ्य तो 'मैं स्वयं वहां आ रही हूं"- कहकर आम्रपाली ने रेणुका की ओर देखा। रेणुका ने तत्काल उसकी आंखें उस अंजनशलाका से आज दी।
अंजन करने के पश्चात् रेणुका ने स्वर्णथाल में पड़े अलंकारों को उठाया। तत्काल आम्रपाली बोली- "रहने दो।"
दर्पण में अंजन का निरीक्षण कर आम्रपाली अपने कक्ष से बाहर निकली और आगे जाने के लिए अग्रसर हुई। माध्विका और शिशिरा दोनों आगे-आगे चलने लगीं।