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विक्रम संवत्सर का अभिनंदन इयत्ता नहीं है। यद्यपि मैं महार्णव के समान सदा अपनी मर्यादाओं का रक्षक हूँ, तथापि विक्रम के ओज से मेरी उत्ताल तरंगे पृथिवी और आकाश के अंतराल को भरने के लिये उठती हैं।।
मेरी आयु का एक-एक क्षण अमोघ है। ऋतुओं के साथ मैं ब्रह्मचारी हूँ। मेरी उत्पादन शक्ति से राष्ट्रीय इतिहास की जो ऋतु कल्याणी बनती है उसी का तेज और सौंदर्य सफल है। राष्ट्रीय विक्रम की सहस्र धागों ने मेरा अभिषेक किया है। एक-एक पुरुषायुष से जीवित रहनेवालीप्रजाओं के मध्य में मैं ही अमर हूँ। मेरा परिचय अनेक महान् आदर्शों के रूप में हुआ है।
हिमालय के प्रांशु देवदारुओं की तरह जो महापुरुष अपने चरित्र-योग से ऊपर उठे हैं उनकी स्मृति मेरे जीवन का रस है। चरित्र को महान् करने का संकल्प जब व्यक्ति में और राष्ट्र में उठता है, तब मेरा प्राण सोते से जागता है। मेरी भूमि पर शाश्वत प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिये प्राणों को शक्ति और. रस से स्पंदित करना आवश्यक है। मेरा प्राण वे सुंदर स्वस्थ प्रजाएँ हैं जो सौ वर्ष तक अदीन भाव से जीवित रहती हैं। मेरे प्रजापति रूप को शतायु
और प्राणवंत प्रजाएँ बहुत प्रिय हैं। उनकी विक्रमपरक परिचर्या से बहुपुत्र-पौत्रीण गृहपति की तरह मैं तृप्त होता हूँ। जिस अंश में क्रियाशील प्रजाएँ नव निर्माण का कार्य करती हैं उसी को मैं उनकी आयु का अमृत और सत् भाग मानता हूँ, शेष इतिहास का असत् भाग है।
पृथिवी के साथ सौहार्द भाव का संबंध मेरी जीवनधारा का पोषक प्राण है। यह भूमि मेरी माता है, और मैं इसका पुत्र हूँ [ माता भूमिः पुत्रो अहम् पृथिव्याः], यह भाव जहाँ है वहाँ जीवन का अमृततुल्य दुग्ध सदा विद्यमान रहता है। पृथिवी पर प्रतिष्ठित हुए बिना कोई मेरे अमृतत्व का प्रसाद नहीं प्राप्त कर पाता। जब प्रजाओं का बहुमुखी चिंतन भूमि के साथ बद्धमूल होता है तब वह वसंत की तरह नए पल्लवों से लहलहाता है। जिसकी विचारधारा भूमि में प्रतिष्ठित नहीं है वह शुष्क पर्ण की तरह मुरझाकर गिर जाता है। अपने पैरों के नीचे की पृथिवी के नदी-पर्वत, वृक्ष-वनस्पति, पशु-पक्षी आदि के सम्यक दर्शन से राष्ट्र के नेत्रों में देखने को नई ज्योति उत्पन्न
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