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नागरीप्रचारिणी पत्रिका लिये उत्साहित करता है। मैं भूतकाल के संचित कल्याण को इस हेतु लिए खड़ा हूँ कि भविष्य को उसका वरदान दे सकूँ।
- जिस युग में गंगा और यमुना ने अनंत विक्रम से हिमाद्रि के शिलाखंडों को चूर्णित करके भूमि का निर्माण किया था, उस देवयुग का मैं साक्षी हूँ। जिस पुरा काल में आर्य महाप्रजाओं ने भूमि को वंदना करके इसके साथ अपना अमर संबध जोड़ा था, उस युग का भी मैं द्रष्टा हूँ। वशिष्ठ के मंत्रोच्चार और वामदेव के सामगान को, एवं सिंधु और कुभा के संगम पर आर्य प्रजाओं के घोष को मैंने सुना है। शतशः राजसूयों में वीणा-गाथियों के नाराशंसी गान से मेरा अंतरात्मा तृप्त हुआ है। राष्ट्रीय विक्रम की जो शत साहस्री संहिता है उसको इस नए युग में मैं फिर से सुनना चाहता हूँ। उस इतिहास को कहनेवाले कृष्ण द्वैपायन व्यासों की मुझे आवश्यकता है। परीक्षित के समान मेरी प्रजाएँ पूर्वजों के उस महान् चरित को सुनने के लिये उत्सुक हैं। 'न हि तृष्यामि शृण्वानः पूर्वेषां चरितं महत्'-मैं पूर्वज पूर्वजनों के महान् चरित को सुनते हुए तृप्त नहीं होता। योगी याज्ञवल्क्य, आचार्य पाणिनि, आर्य चाणक्य, प्रियदर्शी अशोक, राजर्षि विक्रम, महाकवि कालिदास और भगवान् शंकराचार्य के यशामय सप्तक में जो राग की शोभा है उससे मनुष्य क्या देवता भी तृप्त हो सकते हैं। मेरा आशीर्वचन है कि भारत के कार्तिगान का सत्र चिरजीवी हो। प्रत्नकाल से भारती प्रजाओं के विक्रम का पारायण जिस अभिनदनोत्सव का मुख्य स्वर है, वही मेरा प्रिय ध्यान है। राष्ट्र का विक्रमांकित इतिहास ही मेरा जीवन-चरित है। मेरे जीवन का केंद्र ज्ञान के हिमालय में है। सुवर्ण के मेरु मैंने बहुत देखे, पर मैं उनसे आकर्षित नहीं हुआ। मेरे ललाट को लिपि को कौन पुरातत्त्ववेत्ता पढ़कर प्रकाशित करेगा ?...
मैं कालरूपी महान् अश्व का पुत्र हूँ जो नित्यप्रति फूलता और बढ़ता है । विराट् भाव की संज्ञा ही अश्व है। विस्तार और घृद्धि यही अश्व का अश्वत्व है। जब राष्ट्र विक्रमधर्म से संयुक्त होता है तब वह मुझपर सवारी करता है, अन्यथा मैं राष्ट्र का वहन करता हूँ। मेरा अहोरात्ररूपी नाड़ी. जाल राष्ट्र के विवर्धन के साथ शक्ति से संचालित होने लगता है। मेरी प्रगति की
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