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नागरीप्रचारिणी पत्रिका मेरे अंदर प्रजनन की अनंत सामर्थ्य है। प्रजान्त्वभान मेरा सच्चा स्वरूप है। सर्वभूतधात्री लोकनमस्कृता पृथिवी के अंक में मेरे ही वरदान से प्रतिवर्ष अनत सृष्टि होती है। जिस समय राष्ट्र की प्रजाओं में नवीन निर्माण की चेतना स्फुरित होती है वही मेरे यौवन का काल है। नूतन रचना की जो शोभा है वही मेरी भी है। रचना की शक्ति ही प्रजाओं में जीवन का प्रमाण है। जिस युग में सबसे महान रचना का कार्य हुआ है वही मेरे जीवन का स्वर्णयुग है। प्रत्येक देश का इतिहास सुवर्ण-युगों से ही श्रीमान् बनता है। सुवर्ण-युग इतिहास की परम ऋद्धि हैं। जहाँ ऋद्धभाव हैं वहीं इंद्र का पद होता है। मैं इंद्र का सखा हूँ। राष्ट्र के ऐश्वर्य में मैं इंद्र-पद को देखता हूँ। जिस युग में राष्ट्र का यश समुद्रों को लाँघकर द्वीपांतरों में फैल गया था और पर्वतों को पार करके देशांतरों में पहुंचा था, सो युग में मैं अपने जीवन में धन्य हुआ।
मेरे कृतार्थ होने पर ही देश कृतकृत्य होता है। मेरे लिये हवि अर्पित किए बिना कोई जाति अजित नहीं होती। मैं ज्ञान और कर्म की हवि चाहता हूँ। सशक्त चिंतन और सक्रिय जीवन के यज्ञ का मैं यजमान हूँ। मेरे विक्रमपरक नामकरण के जो पुरोहित थे उन्होंने मेरे स्वरूप के यथार्थ भाव को समझा था। गणित के अंकों में समाए हुए मेरे रूप को देखकर जो मेरी अवहेलना करते हैं वे मूढ़ हैं। मैं महान विक्रमांक हूँ। सृष्टि के निर्माण में विष्णु ने विचंक्रमण किया; राष्ट्र के निर्माण में मेरा विक्रम है। - राजर्षियों की परंपरा ने अपने विक्रम के वरदान से मुझे उपकृत किया है। विक्रम ही मेरा उपनिषद् है। मेरा आदि और अंत अव्यक्त है। विक्रम का ओजायमान प्रवाह ही मेरे व्यक्त मध्य का सूचक है। उसमें प्रजाओं के जीवन का रस ओत-प्रोत रहता है।
मैं पुराण पुरुष की तरह वृद्ध होता हुआ भी विक्रम के कारण चिरंतन यौवन का स्वामी हूँ। जिसका जीवन सदा उत्थानशील है वही मेरा निकट संबंधी है, अन्यथा मैं एक-रसकाल के समान निलंप हूँ। सदोत्थायी राष्ट्र पर कृपा करके ही मैं तिथियों के दीप्त अंक अपने उत्संग में धारण करता हूँ। प्रजाओं के कर्मठ जीवन के जो पादन्यास विक्रम के साथ रखे गए, उन्हीं को ।
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