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-विक्रम संवत्सर का अभिनंदन छाप मेरे कालचक्र पर अमिट पड़ी है। उन चरण-न्यासों के लिये यदि प्रजाओं के मन में श्रद्धा का भाव है तो उनका भावी जीवन भी अमर है। मैं भूत के बंधन से भविष्य को बाँधने के लिये अस्तित्व में नहीं हूँ, वरन् अतीत के प्रकाश से भविष्य को आलोकित करने के लिये मैं जीवित हूँ।
जहाँ जीवन का रस है वहाँ मेरा निवास है। रस-हीन कर्म मुझे असत्य प्रतीत होता है। सत्य के आश्रय से ही जीवन में रस का स्रोत प्रवाहित होता है। निष्प्राण ज्ञान को मैं राष्ट्र का अभिशाप समझता हूँ। प्राणवंत ज्ञान व्यक्ति और समाज के जीवन को अमृत-रस से वृद्धि के लिये सींचता है। जहाँ रस है. वहाँ विषाद नहीं रह सकता। जिस राष्ट्र के रस-तंतुओं को विपक्षी अभिभूत नहीं कर पाते वह आनंद के द्वारा अमृत पद में संयुक्त रहता है। जीवनरस की रक्षा, उसका संचय, संवर्धन और प्रकाशन ही व्यक्ति
और राष्ट्र में अमृतत्व का हेतु है। मेरे रोम-रोम में अक्षय्य रस का अधिष्ठान है। उस रस का लावण्य प्रति-प्रभात में उषा की सुनहली किरणें मेरे शरीर में संचित करती हैं। जो विक्रम के द्वारा मेरे दिव्य भाव को आराधना करता है उसको पिता की भाँति मैं नवीन जीवन के लिये आशीर्वाद देता हूँ। मेरे पुत्र व्यष्टि रूप में मर्त्य होते हुए भी समष्टि रूप में अमर हैं। .
उत्कर्ष मेरी वीणा के तारों का गान है। जागरण की वेला में जब . विचारों का प्रचंड फगुनहटा चलता है, तब वसंत का मूलमंत्र प्रजाओं को हरियाली से लाद देता है, और सोते हुए भाव उठकर खड़े हो जाते हैं। जब राष्ट्रीय मानस का कल्पवृक्ष इस प्रकार नूतन चेतना से पल्लवित होने लगता है तब मैं स्वयं अपने विक्रम के अभिनंदन के साज सजाता हूँ। जब प्रजाओं के नेत्र तंद्रा के हटने से खुल जाते हैं तब भूत और भविष्य के अंतर को चीरकर दूर तक दृष्टिपात करने की उनमें क्षमता उत्पन्न होती है। राष्ट्र के कोष में जो ज्ञान की चिंतामणि है उसके एक सहस्र अंशुओं को प्रजा सहस्र नेत्रों से देखने लगती है। जीवन के अप्रकाशित क्षेत्र नए आलोक से जगमगाने लगते हैं। उन्नति और प्रगति के नए पथ दृष्टि में आ जाते हैं। पथ की धुंधली रेखाओं को मेरा विक्रमांकित अमर प्रदीप समय पर प्रकाशित करके जनता को आगे बढ़ने के
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