Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 1
भी हमलोग धर्म ही कहते हैं । लेकिन वर्णाश्रम को जो नहीं मानते, वे भी एक प्रकार के धर्म के ही आचरण का दावा करते हैं । भगवान् बुद्ध का जो धर्म है, उसका नाम तो सद्धमं है अच्छा धर्मं । कभी भी भगवान् बुद्ध ने बौद्धधर्म नहीं कहा सद्धर्म कहा। इसी तरह अनेक भिन्नताओं या विशेषताओं के रहने पर भी महावीर तीर्थंकर द्वारा चलाया मत भी धर्म ही है । इतना ही नहीं, जो मत भगवाद् को बिल्कुल नहीं मानता, वह भी धर्म
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कहलाया । इस तरह धर्म की व्याख्या और रूप अनेक है, एक नहीं । विद्वद्गोष्ठी में बहुत लोगों ने श्लोक को प्रमाण मानकर कई बातें कहीं। लेकिन किसी एक श्लोक को प्रमाण माना जाय, तो कैसे ? संस्कृत में अनेक परस्पर विरोधी श्लोक मिलते हैं । संस्कृत वाङ्मय तो समुद्र जैसा है । उसमें हांगर ( मगर ) भी है, जो मछली खाता है और मुक्ता - मोती भी है । जैसे समुद्र में ऐसे जानवर भी होते हैं, जो दूसरे समुद्री जानवर को खा जाते हैं, वैसे ती संस्कृत में ऐसे श्लोक हैं, जो दूसरे संस्कृत श्लोक को हजम कर जाते हैं । धर्मकीर्ति के श्लोक का आशय मैं आपको सुना देता हूँ, जो इसी वैशाली की सृष्टि है । उसका कहना है कि भ्रष्टबुद्धि के पांच लक्षण होते हैं। पहला लक्षरण है 'वेदप्रामाण्यं', अर्थात् वेद को प्रमाण मानना । दूसरा लक्षण है 'कस्यचित् कर्तृ वादः', यानि यह मानना कि ईश्वर ने दुनिया को बनाया है । तीसरा लक्षण है 'स्नाने धर्मेच्छा, यह विश्वास करना कि नहाने से धर्म होता है । चौथा लक्षण है 'जातिवादावलेपः--जातिव्यवस्था या वरश्रम को मानना । और, पांचवां लक्षण है 'संतापारम्भ पापहानायचेति'-- श्रर्थात् शरीर को कष्ट देकर धर्भ-लाभ मानना । इस तरह जो भ्रष्टबुद्धि है, जिसका दिमाग बिल्कुल खराब हो गया है, उसकी मूर्खता के ये उपर्युक्त ) पाँच लक्षण हैं - ' ध्वस्त प्रज्ञाने पञ्चलिंगानि जाड्ये' । तो, यह मी संस्कृत में लिखा हुआ है और धर्मकीर्ति जैसे बड़े मी का लिखा हुआ है । अब इनका श्लोक मानूं या वेदवादियों अथवा आस्तिकों का श्लोक मानूँ । बताइये ।
भगवान् बुद्ध ने जिसे धर्मं कहा है, उसके बारे में मैं थोड़ा जानता हूं । जिसको आप धर्म कहते हैं, उसके प्रसंग में अक्सर यह विचार किया जाता है कि ईश्वर है या नहीं, सृष्टि किसने की या सृष्टि स्वयं हो गई, वगैरह । मगर भगवान् बुद्ध ने इनके बारे में कुछ कहा ही नहीं । भगवान् बुद्ध ने धर्म का जो माने लगाया था, वह था आचरण - विनय । उनका धर्म तो था आष्टांगिक मार्ग, जिसमें है सम्यग् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यग् वाचा, सम्यक् कर्म, सम्यग् अजीव, सम्यक प्रयत्न, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि । यानि भले-बुरे ठीक ज्ञान होना ताहिए, हर मनुष्य का संकल्प ठीक होना चाहिए, उसका वचन ही नहीं कर्म भी ठीक होना चाहिए, उसे अच्छी तरह से जीवन निर्वाह करना चाहिए, इत्यादि । सचमुच, आचरण ही सबसे बढ़कर महत्वपूर्ण है । आप चोरी करके सद्धर्म का पालन नहीं कर सकते हैं । इसलिए भगवान् बुद्ध का जो धर्म है, वह आचरण का धर्म है । इसमें है पुरुषकार । मेरी समझ बौद्ध धर्म और जैन धर्म का जो सबसे बड़ा गुण है, वह है पुरुषकार में विश्वास | आप में अच्छा काम करने की जो क्षमता है, उसके द्वारा आप अपने भविष्य का निर्माण कर सकते हैं । यह निश्चित है कि आप जो करेंगे, उसीसे आपका भविष्य निर्मित
१. प्रमाणवार्तिक स्ववृत्ति, १.३४२ ।
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