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278 VAISHALI INSTITUTE REASERCH BULLETIN No. 1
और उनकी परिमाषाएँ आज तक समान रूप से सुरक्षित रही हैं। पातंजल योगसूत्र में सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार और निर्विचार ये चार समापत्तियां प्रसिद्ध हैं। बौद्ध परम्परा में सवितक्कमविचारपीतिसुखएकग्गता आदि चार अथवा पाँच ध्यान, नवभेद से, उपलब्ध होते हैं। जैन परम्परा में भी पृथक्त्ववितर्कसविचार, एकत्ववितर्क-प्रविचार, सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपाती तथा समुच्छिन्नक्रिय-अप्रतिपाती ये चार ध्यान पहले से ही प्रचलित हैं। इनमें से निर्वितर्क एवं निविचारसमापत्ति को योगसूत्र और उस पर के भाष्य में निर्विकल्पक और इन्हीं समापत्तिकालीन दर्शन को परमदर्शन एवं ऋतम्भरा प्रज्ञा कहा है बौद्ध परम्परामें भी वितर्क एवं विचार की उपशान्ति होने पर जो ज्ञान होता है उसी को निर्विकल्प कहा है । जैन परम्परा की भी ऐसी ही माम्यता है। ध्यान की ऐसी उच्च कक्षा में प्रकट होनेवाले ज्ञान को ही प्रत्येक परम्परा परम प्रमाण मानती है। परन्तु योगाचार महायानियों ने योग की निर्विकल्पभूमि को ही अन्तिम और परमार्थ मानकर और तत्कालीन निर्विकल्प ज्ञान के अनुसार विश्व का निर्विकल्प एवं निष्प्रपंच रूप ही वास्तविक है तथा उसके अतिरिक्त सब कुछ मनःकल्पित और अविद्यामूलक है ऐसा कहकर विज्ञानचित्त के अतिरिक्त सभी लौकिक और बाह्य पदार्थों का निषेध किया है । शून्यवादी और केवलाद्वैती भी इसी मार्ग पर गये हैं।
__ इस प्रतिपादन का परिणाम ज्ञानप्रक्रिया में यह पाया कि जो ज्ञान निर्विकल्पक और निष्प्रपंच वही परमार्थसत्य और जिस ज्ञान में शब्दविकल्प अथवा मन का अनुवेध हो वह भ्रान्त या सांवृत ।
ध्यान की अमुक भूमिका के आधार पर विश्व के स्वरूप का वर्णन तो विज्ञानवादियों ने किया, परन्तु उसके आगे अपने ही सगे भाइयों का बड़ा भारी मोर्चा था। उन्होंने कहा कि बुद्ध के उपदेशों में जो स्कन्ध, प्रायतन, लोकधातु, इन्द्रिय आदि बाह्य पदार्थों का निरूपण आता है उसका क्या होगा ? विज्ञानवादी और शून्यवादी ने कहा कि पिटकों में जो वैसा उपदेश है वह तो बुद्ध ने स्थूल अधिकारियों में बुद्धिभेद न हो और कालक्रम से वे भी समझने लगेंगे ऐसा मानकर लौकिक दृष्टि से किया है। बुद्ध की पारमार्थिक दृष्टि तो हम जो कहते हैं वही थी, इत्यादि ।
विज्ञानवादी, शून्यवादी और केवलाद्वैती को दो-दो मोर्चों पर लड़ना पड़ता था। अपनी-अपनी परम्परा में जो बाह्यार्थ का अस्तित्व मानते उनके साथ अपने पुराने ग्रन्थों का तात्पर्य अपने ढंग से स्पष्ट करके चर्चा करनी पड़ती, तो इतर बाह्मार्थवादी परम्पराओं की दलीलों का जबाब भी युक्ति-प्रयुक्ति द्वारा देना पड़ता। इस चर्चा और विवाद की प्रक्रिया का निर्देशक साहित्य विपुल परिणाम में उपलब्ध है।
विज्ञानवादी एकमात्र ध्यानात्मक लोकोत्तर भूमि में होने वाले निर्विकल्पक ज्ञान को ही मुख्य और पारमार्थिक प्रमाण मानकर बाह्यार्थं के स्वतन्त्र अस्तित्व का खण्डन करते थे और लौकिक भूमिका में होने वाले सविकल्पक, अनुमान एवं मागम जैसे ज्ञानों को पारमार्थिक नहीं मानते थे। अतः स्वाभाविक रूप से ही बाह्यार्थवादी न्याय-वैशेषिक,
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