Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 1
सांख्य योग परम्परा ने भी प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम ज्ञान की प्रक्रिया एक तरह से न्याय-वैशेषिक जैसी ही मानी है । फलतः उसने भी विज्ञानवाद के मन्तव्य का प्रतिवाद किया है। अलबत्ता, सांख्य योग परम्परा अन्तःकरणवृत्ति को लेकर अपनी ज्ञानप्रक्रिया घटाती है ।
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कुमारिल आदि मीमांसकों ने भी कहा है कि इन्द्रियजन्य सर्वप्रथम आलोचनाज्ञान श्रथवा निर्विकल्पज्ञान श्रवश्य इष्ट है, परन्तु सन्निकर्षपरम्परा में से उत्पन्न होने वाले सविकल्पक प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम आदि सविकल्पक ज्ञानों के मुख्य प्रामाण का निषेध किया ही नहीं जा सकता । ऐसा कहकर इन ज्ञानों का मुख्य प्रामाण्य उन्होंने अनेक युक्ति- प्रयुक्तियों से स्थापित किया है ।
जैन परम्परा ने भी विज्ञानवाद का विरोध करके कहा कि तुम जिसे निर्विकल्पक कहते हो वैसा प्राथमिक ज्ञान व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह अथवा दर्शन के रूप में हमें मान्य है, परन्तु सभी सविकल्पक ज्ञानों का प्रामाण्य तुम जो नहीं मानते वह हमें किसी प्रकार युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता ।
भर्तृहरि जैसे शब्ददर्शन के अनुगामियों ने तो विज्ञानवादी जैसे निर्विकल्पक ज्ञान पर अत्यन्त भार देने वालों को सुना दिया कि ज्ञानमात्र शब्द- सम्बद्ध होने से सविकल्पक ही है । यह शाब्दिक दर्शन का पक्ष एक प्रकार से विज्ञानवाद का सर्वथा विरोधी पक्ष कहा जा सकता है । यद्यपि शाब्दिक दर्शन अपनी रीति से सब ज्ञानों को शब्दानुविद्ध मानता है, फिर भी उसकी परा, पश्यन्ति श्रादि वाक् की चतुविध प्रक्रिया विशेष रूप से विचारणीय तो है ही । विज्ञानवाद लोकोत्तरभूमि में सर्वथा शब्दसंसर्ग से रहित ज्ञान का अस्तित्व तो मानता है, तो शाब्दिक दर्शन लौकिक और लोकोत्तर किसी भी भूमिका में शब्दसम्पर्क से विरहित ज्ञान कां अस्तित्व मानता ही नहीं। ये ही इन दोनों परम्पराओं के सर्वथा भिन्न दृष्टिबिन्दु हैं ।
विज्ञानवादने सौत्रान्तिक दृष्टि का अवलम्बन लेकर और क्षणिक, निरंश एवं वर्तमान वस्तुमात्र के साथ इन्द्रियसंसर्ग को मान कर तज्जन्य निर्विकल्पक ज्ञानकी जब मुख्य प्रमाण के रूप में स्थापना की, तब उसके पीछे उसकी दृष्टि यह रही कि निर्विकल्प ज्ञान जाति-गुण-क्रिया की किसी भी कल्पना का स्पर्श किये बिना ही श्रखण्ड, क्षणिक और वर्तमान वस्तुमात्र का अवगाहन करता है; उसमें किसी धर्म-धर्मी का भेद भासित नहीं होता और न उसमें किसी भी प्रकार की कल्पना का प्रवेश होता है । इस प्रकार उसने लोकोत्तर भूमि के निर्विकल्पक को, अपने ढंग से, लौकिक भूमिका में घटा कर निर्विकल्पकमात्र के मुख्य प्रामाण्य और पारमार्थिकत्व की प्रतिष्ठा के लिए येन केन प्रकारेण नसाधारण प्रयत्न किया । इस प्रयत्न का प्रतिषेध करनेवाले इतर वादियों ने भी उतने ही बल तथा उतनी ही सबल एवं सूक्ष्म युक्तियों से उत्तर दिया । इस प्रकार निर्विकल्प श्रीर सविकल्प की चर्चा केवल प्रत्यक्ष ज्ञान तक ही मर्यादित न रही; उस चर्चा में अनुमान, श्रागम आदि ज्ञानों में तथा ईश्वरीय प्रत्यक्ष, सर्वज्ञप्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष जैसे अलौकिक ज्ञानों में श्री प्रवेश किया है ।
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