Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 316
________________ DHARMAJÑANA KE MULA: ANUBHUTI EVAM TARKA 305 और किसका नहीं, तब परमहंस रामकृष्ण ने सभी धर्मों के मूलतत्त्व को अपने जीवन में साकार करके मानों सारे विश्व को यह संदेश दिया कि धर्म को शास्त्रार्थ का विषय मत बनाओ । हो सके तो उसकी सीधी अनुभूति के लिए प्रयास करो। उन्होंने हिन्दुत्व के सभी मार्गों की साधना की। यही नहीं, वे कुछ दिन सच्चे मुसलमान बनकर इस्लाम की भी साधना करते रहे और कुछ कालतक उन्होंने ईसाइयत का भी अभ्यास किया था । भारत की धार्मिक समस्या का जो समाधान रामकृष्ण ने दिया उससे अधिक वास्तविक समाधान और कोई हो नहीं सकता । क्रम-क्रम से वैष्णव, शैव, शाक्त, तांत्रिक, अद्वैतवादी, मुसलमान और ईसाई बनकर परमहंस ने यह सिद्धकर दिखाया कि धर्मों के बाहरी रूप तो केवल बाहरी रूप हैं, उनके मूलतत्त्व में कोई अन्तर नहीं आता । किन्तु इसकी प्राप्ति अनुभूति से होती है, तर्क अथवा वाद-विवाद से नहीं । वस्तुतः धर्म के दो रूप हमारे सामने आते हैं । में "धर्म" शब्द का प्रयोग केवल "पारलौकिक सुख का किया जाता है । उदाहरणार्थं जब हम किसी से प्रश्न सा धर्म है ? तब उससे हमारे पूछने का यही हेतु होता है कि तू अपने पारलौकिक कल्याण के लिए वैदिक, बौद्ध, जैन अथवा ईसाई किस मार्ग से चलते हो और वह हमारे प्रश्न के अनुसार ही उत्तर देता है । इसी तरह स्वर्ग प्राप्ति के लिए साधनभूत यज्ञ-याग आदि वैदिक विषयों की मीमांसा करते समय "अथातो धर्म जिज्ञासा" आदि धर्म सूत्रों में भी धर्म शब्द का यही अर्थ लिया गया है । परन्तु, धर्म शब्द का एकमात्र यही अर्थ नहीं दूसरा अर्थ भी है। राजधर्म, प्रजाधर्म, देशधर्म, कुलधर्म आदि सांसारिक नीतिबन्धन भी तो धर्म ही हैं । चतुर्विध पुरुषार्थों की गणना करते समय हम धर्म, अर्थ काम और मोक्ष कहा करते हैं । यहाँ धर्म और मोक्ष को स्पष्टतः पृथक् पृथक् कर दिया गया है। यहाँ धर्म से तात्पर्यं कर्त्तव्य, कर्म, सदाचार आदि है । भगवद्गीता में भी जब भगवान् अर्जुन से यह कह कर लड़ने के लिए कहते हैं कि "स्वधर्ममपि चावेक्ष्य " तब और इसके बाद "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' २" इस स्थान पर भी धर्म शब्द चातुर्वर्ण्य धर्म के ही अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । महाभारत, गीता आदि प्रार्षग्रन्थों में तथा आधुनिक नीति-ग्रन्थों में भी व्यावहारिक कर्त्तव्य अथवा नियम के अर्थ में "धर्म" शब्द का सदा प्रयोग हुआ है। कुलधर्म और कुलाचार दोनों शब्द समानार्थक समझे जाते हैं । कर्ण के साथ अर्जुन के युद्ध प्रसंग में कर्ण के द्वारा यह कहे जाने पर कि १. गी० २, ३१. . २. गी ३, ३५. Jain Education International एक तो नित्य व्यवहार मार्ग" इसी अथ में करते हैं, तेरा कौन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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