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306 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. I "निःशस्त्र शत्रु को मारना धर्म युद्ध नहीं" भगवान् कृष्ण ने उसे कई पिछली बातों का स्मरण दिलाते हुए, प्रत्येक प्रसंग में यह प्रश्न किया है कि हे कर्ण ! "क्वते धर्मस्तदागत:" अर्थात् उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ गया था ? इस प्रकार हम देखते हैं कि 'धर्म' शब्द का प्रयोग उन सब नीति-नियमों के बारे में किया गया है जो समाजधारणा के लिए शिष्ट जनों के द्वारा बनाये गये हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर नीति के नियमों अथवा शिष्टाचार को धर्म का मूल कह सकते हैं। अर्थात् समाजधारणा के लिए मानव के उच्छङ्खल आचरण का प्रतिबन्ध करना ही धर्म है।
उपर्युक्त प्रकार धर्म के दो स्वरूप पारमार्थिक और भौतिक, इनको दृष्टि में रख कर ही धर्मज्ञान के मूल क्रमशः अनुभूति एवं तर्क बताये गये हैं। यद्यपि सूक्ष्मदृष्टि से देखने पर जैसे उपर्युक्त धर्म के स्वरूपों में भी वास्तविक भेद नहीं है, ठीक उसी प्रकार उनके ज्ञान के मूल साधन अनुभूति एवं तर्क में भी नहीं। किन्तु, व्यावहारिक दृष्टि से ये विभाजन किये गये हैं। वस्तुतः हेतु से अगम्य सूक्ष्म धर्म का समर्थन श्रुति-अनुभूति से और हेतुगम्य का समर्थन तर्क से करना चाहिए। किन्तु, जो अहेतुगम्य सूक्ष्म धर्म के लिए तर्क का प्रयोग करते हैं और हेतुगम्य के लिए श्रुति-अनुभूति का वे सही अर्थ में धर्म के तत्त्व को नहीं जान सकते।
३. म० भा० कर्ण० ६१, ३-११.
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