Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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304 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. I इच्छाजन्या कतिर्भवेत् । कतिजन्यं भवेत् कर्म ।" अर्थात पहले किसी वस्तु का ज्ञान होता है फिर ज्ञान से इच्छा पैदा होती है, इच्छा से आत्मा में प्रयत्न होता है, फिर प्रयत्न से शरोरादि में क्रिया होती है। ज्ञान बुद्धि की वृत्ति का ही नाम है अथवा ज्ञान ही बुद्धि है । तब बिना बुद्धि के किसी से भी कोई काम नहीं हो सकता । किन्तु, जड़, बालक, पशु आदि बुद्धिवाद पर स्थिर हैं, ऐसा कोई नहीं कह सकता, क्योंकि वह बुद्धि स्वयं उत्पन्न नहीं होती, दूसरे के द्वारा उत्पन्न करायी जाती है। ठीक इसी तरह शास्त्र द्वारा जो बुद्धि उत्पन्न करायी जायेगी, वह इस बुद्धिवाद की सीमा में नहीं आ सकती। अब रही शास्त्र का आशय भिन्न-भिन्न समझने की बात सो हमारे शास्त्र में किस शब्द का क्या आशय समझना-इसके नियम भी बहुत स्पष्ट और विस्तृत रूप में बने हुए हैं, जिन्हें हम मीमांसाशास्त्र कहते हैं। उसका आधार ले लेने पर बुद्धि की उच्छृङ्खलता पूर्णतः रुक जाती है। अब कोई उन नियमों को न मानकर अपनी धींगा-धींगी करता रहे, तब तो यह बात ही दूसरी है। वस्तुतः जिस सत्य का हमने अनुभव नहीं किया, साक्षात्कार नहीं किया, क्या, उस सत्य की सरिता अनुभव की ऊँचाई से प्रवाहित हो सकती है ? कवि की कल्पनाओं को काव्य की भाषा में दुहराने से हमारा काम कुछ चल सकता है, पर, आध्यात्मिक सत्यों को केवल तर्क की भाषा में दुहराने से काम नहीं चल सकता। जब-जब तर्क की दुहाई बढ़ती है और अनुभूति घटती है, तब-तब धर्म निस्तेज हो जाता है। अतः धर्म को तेजस्वी बनाने के लिए अनुभूति को प्रोत्साहन देना होगा। वस्तुतः अनुभूति में ज्ञेय और ज्ञाता, दृश्य और द्रष्टा का सीधा सम्पर्क होता है, किसी माध्यम के द्वारा नहीं । किन्तु, तर्क का क्षेत्र तो परोक्ष अनुभूति अथवा दूसरे माध्यम से होने वाला ज्ञान है।
वस्तुतः तर्क और पांडित्य से धर्म का निर्णय हो भी नहीं सकता, ठीक वैसे ही जैसे तर्क और पांडित्य से ईश्वर को सत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती। वस्तुतः धर्मज्ञान का मूलाधार तर्क नहीं सीधी अनुभूति है। धर्म पंडितों की नहीं, संतों और द्रष्टानों की सृष्टि है। हमारे दार्शनिक सत्य सोचे और समझे नहीं गये थे, प्रत्युत ऋषियों ने आत्मचक्षु से उनका दर्शन किया था। वाद-विवाद, तर्क और पांडित्य से धर्म की सिद्धि नहीं होती। धर्म अनुभूति की वस्तु है और धर्मात्मा हम उन्हीं को मानते आये भी हैं, जिन्होंने धर्म के महासत्यों को केवल जाना ही नहीं, उनका अनुभव और साक्षात्कार किया है। धर्म के रहस्य केवल बुद्धि से उद्घाटित नहीं होते। इसके लिए एक अद्भुत शक्ति अपेक्षित होती है, जो पंडितों में नहीं सन्तों में पायी जाती है। अनुभूति तर्क से अधिक शक्तिशालिनी वस्तु है। रामकृष्ण परमहंस ने अपने जीवन से यह बता दिया कि धार्मिक सत्य केवल बौद्धिक अनुमान की वस्तु नहीं, प्रत्यक्ष अनुभव के विषय हैं। जब आस्तिक और नास्तिक, हिन्दू, ईसाई और मुसलमान आपस में इस प्रश्न पर लड़ रहे थे कि किसका धर्म ठीक है
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