________________
DHARMAJNANA KE MULA : ANUBHUTI EVAM TARKA 303 इन महापुरुषों के आचरण में भी तो कोई एकता नहीं, परस्पर भिन्नता है। और इन आचरणों को भी तो पूर्ण स्वछ एवं निष्कलंक नहीं कहा जा सकता। .
इस प्रसंग में महाभारत के अन्तर्गत श्येन और राजा शिबि का प्रसंग भी ध्यान देने योग्य है, इससे धर्मज्ञान का एक दूसरा पक्ष प्रकाश में आता है
धर्म यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुवर्मतत् । अविरोधात्त यो धर्मः सधर्मः सत्यविक्रम । विरोधिषु महीपाल निश्चित्य गुरुलाघवम् । न बाधा विद्यते यत्र तं धर्म समुपाचरेत् ।।
[म० भा० वन० १३१] अर्थात् जिस धर्म से धर्म का नाश हो, वह धर्म नहीं, कुमार्ग है। अविरोधी धर्म ही धर्म कहलाने योग्य है। परस्पर विरुद्ध धर्मों का तारतम्य अथवा लघुता
और गुरुता देखकर ही प्रत्येक मौके पर अपनी बुद्धि के द्वारा सच्चे धर्म अथवा कर्म का निर्णय करना चाहिए । पर, इसे भी हम धर्मज्ञान का स्पष्ट आधार नहीं कह सकते। क्योंकि ऐसा व्यवहार में देखा जाता है कि अनेक विद्वान् अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार धर्माधर्म का विचार भिन्न-भिन्न प्रकार से किया करते हैं। और वस्तुतः "तर्कोऽप्रतिष्ठः" इस वचन का रहस्य भी यही है । वस्तुतः इन्हीं कारणों से शास्त्रकारों ने बुद्धिवाद को चौथा स्थान दिया है। अर्थात् धर्म के निर्णय में प्रथम स्थान श्रुति को दूसरा स्मृति को, तीसरा सदाचार को और चौथा अपनी प्रियता' तात्पर्य अपनी बुद्धि की अनुकलता को। इस कारण श्रुति, स्मति, अथवा सदाचार से विरुद्ध यदि बुद्धि की अनुकूलता हो, तो वह कदापि माननीय नहीं हो सकती। यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि बुद्धिवाद को छोड़ कर आखिर धर्म-अधर्म का निर्णय होगा कैसे ? श्रुति, स्मृति आदि का समझना भी तो बुद्धि पर ही अवलम्बित है । बुद्धि श्रुति, स्मृति का आशय जैसा समझेगी, वैसा ही तो मार्ग निश्चय करेगी। इसीलिए तो श्रुति, स्मति मानने वालों के भी तो सैंकड़ों अवान्तर भेद बन गये, क्योंकि किसी की बुद्धि ने श्रुतिस्मृति का आशय कुछ समझा तो किसी ने कुछ। तब यदि अन्त में जाकर भी बुद्धि पर ही ठहरना पड़ता है तो पहले से ही सीधा बुद्धिवाद ही क्यों न मान लिया जाय ? विचार करने पर यह तर्क सत्य से दूर दृष्टिगत होगा। श्रुतिस्मृति का आशय बुद्धि से समझ कर उसके आधार पर धर्माधर्म का निर्णय करना और बात है और केवल उच्छृङ्खल बुद्धि को निर्णय का आधार मान लेना और बात है। यों तो मूर्ख, बालक, पशु आदि जो कोई भी कुछ करता है, उसमें बुद्धि का आधार तो रहता ही है। बिना बुद्धि की प्रेरणा के कोई क्रिया हो ही नहीं सकती। जैसी कि दार्शनिकों की मान्यता है-"ज्ञानजन्या भवेदिच्छा
१. मनु० अ० २ श्लोक १२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org