Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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धर्म एवं बदलते हुए मूल्य
नथमल टाटिया (१) जो वस्तु हमें इष्ट है वही हमारे लिए मूल्य है। उस इष्ट वस्तु की प्राप्ति के साधन भी मूल्य ही हैं। उदाहरणार्थ-पुत्र, वित्त एवं स्वर्गादि लोक मूल्य हैं, एवं उनकी प्राप्ति के साधन रूप से इष्ट याग-यज्ञ, व्रत, तपस्या आदि भी मूल्य हैं। इष्ट मूल्यों को हम साध्य-मूल्य कह सकते हैं एवं उनकी प्राप्ति के उपायों को हम साधन-मूल्य की संज्ञा दे सकते हैं। बुद्ध ने अविद्या एवं तृष्णा को सांसारिक जीवन का हेतु माना। भगवान् महावीर ने इसी बात को मोहनीय कर्म मानकर स्पष्ट किया । योग-दर्शन में तृष्णा को राग कहा गया है । योग-भाष्य (१.७) में राग की व्याख्या इस प्रकार है
सुखाभिज्ञस्य सुखानुस्मृतिपूर्वः सुखे तत्साधने वा यो गर्घः, तृष्णा, लोभः, स रागः । अर्थात्, जिस व्यक्ति ने अतीत में सुख का अनुभव किया है, उस व्यक्ति के मन में, उस अतीत अनुभव के स्मरण के कारण, जो सुख एवं सुख के साधनों के प्रति आसक्ति, तृष्णा एवं लोभ है, वही राग है । कि भारतीय सभी दर्शन संसार को अनादि मानते हैं, अत: यह तृष्णा भी अनादि है एवं कोई भी व्यक्ति इसके प्रभाव से मुक्त नहीं है। आधुनिक युग में फ्रायड ने इस तत्त्व को कामतृष्णा (libido) की संज्ञा दी है, जिसे वे अनादि एवं अनन्त मानते हैं, जबकि भारतीय दर्शन उसके प्रात्यन्तिक उन्मूलन के साधनों में भी विश्वास रखते हैं । यह तृष्णा सभी सांसारिक मूल्यों का बीज है। इसके विपरीत दूसरे नैतिक एवं प्राध्यात्मिक मूल्य भी माने गये हैं, जो मनुष्य को एक उच्च स्तर पर ले जाते हैं। इन दो प्रकार के मूल्यों के बारे में वैदिक दार्शनिकों में मौलिक विवाद रहा है, जिसकी एक मनोरंजक चर्चा हम सांख्य ग्रन्थ युक्तिदीपिका (पृष्ठ १६-१७. दिल्ली, १९६७) में पाते हैं। प्राचीन वैदिक धर्म में त्रिविध एषणाओं को योग्य स्थान प्राप्त था। पर उपनिषद् काल में संन्यास को प्रधानता मिली, जिसकी पराकाष्ठा हम सांख्य-दर्शन में देखते हैं । मीमांसक दर्शन सदैव प्राचीन वैदिक धर्म का समर्थक रहा, यद्यपि उपनिषदों का प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया एवं शांकर वेदान्त में उसका पर्यवसान हुमा । युक्तिवीपिका में ये दो पक्ष, अत्याग-पक्ष एवं संन्यास-पक्ष के रूप में उभर आये हैं । सांख्य दार्शनिक भी वेद का प्रामाण्य अस्वीकार नहीं करते हैं (वही, पृष्ठ १६), पर वे अपना सिद्धान्त वेदों के उन अंशों से फलित करते हैं, जिनमें संन्यास का उपदेश दिया गया है । अपने पक्ष में वृहदारण्यक (४. ४. २२) का निम्नोक्त वाक्य उद्धृत करते हैं :
१. जैन युवक संघ, बम्बई, के तत्त्वावधान में भारतीय विद्या भवन में १८ अगस्त, १९७१ को दिया गया भाषण। .
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