Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 310
________________ DHARMA EVAM BADALATE HUE MULYA 299 करता हुआ पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होता है; जिन्होंने प्रथम प्रजापति के रूप में (देश, काल और प्रजा परिस्थिति के) तत्वों को अच्छी तरह से जानकर जीवनोपाय को जानने की इच्छा रखनेवाले प्रजाजनों को सबसे पहले कृषि आदि कर्मों में शिक्षित किया, और फिर हेयोपादेय तत्व का विशेष ज्ञान प्राप्त करके श्राश्चर्यकारी प्रकाश को प्राप्त होते हुए जो ममत्व से ही विरक्त हो गये, एवं इस तरह जो तत्त्ववेत्तात्रों में श्रेष्ठ हुए ।" अतः यह स्पष्ट है कि जैन धर्म के अनुनार भी मूल्यों का उद्भव धर्म-प्रवर्तकों से ही होता है । प्राचीन बौद्ध धर्म की भी इस विषय में यही स्थिति रही । महायान बौद्ध धर्म में अवश्य इसमें आमूल परिवर्तन हुग्रा । बोधिसत्व स्वयं उन मूल्यों के रूप में सत अवतरित होना चाहता है, जैसाकि हमने ऊपर बोधिचर्यावतार ग्रन्थ के उद्धरण में देखा वेदान्त दर्शन में भी ऐसे विकास की संभावना रही, पर शायद वह साकार नहीं हो पाई । । धर्मों के साथ मूल्य अभिन्न रूपेण संश्लिष्ठ हैं । हमने यह देखा । हम यह भी कह सकते हैं कि धर्म मूल्यगर्भित हैं। पर जो धर्म में विश्वास नहीं करते तथा श्रात्मा, पुनर्जन्म एवं कर्म में भी श्रद्धा नहीं रखते, उनके लिए मूल्यों का क्या स्थान है ? इस प्रश्न पर भी विचार कर लेना आवश्यक है मूल्यों का स्रष्टा एवं नियन्ता कोई सर्वशक्तिमान पुरुष ही हो सकता है । इस दृष्टि से नास्तिकता - वादियों के लिए राष्ट्र के अधिनायक या जन-प्रतिनिधियों को ही ईश्वर या कर्म का स्थान प्राप्त होना चाहिए । वस्तुस्थिति भी यही है । ये राष्ट्रनायक या जन प्रतिनिधि विभिन्न धर्मों में स्वीकृत लोकसंग्राहक सिद्धान्तों से प्रेरणा भले ही लें, पर श्राखिरी निर्णायक तो वे स्वयं ही हैं। धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को मानने में भी कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिये, यदि वे मूल्य बहुजनहिताय बहुजन सुखाय हों । वास्तव में धर्मप्रसूत मूल्यों का आधार भी वही बहुजन हित एवं बहुजन - सुख है । (५) हमने मूल्यों पर विचार किया, एवं धर्म पर भी विचार किया । अर्थ एवं काम जैसे सांसारिक मूल्यों का बीज तृष्णा है । पर अहिंसा, अपरिग्रह, जैसे नैतिक, एवं मोक्ष जैसे आध्यात्मिक मूल्य तृष्णारहित होने के कारण एकान्ततः लोकहितकर होते हैं । इन लोकहितकर तत्त्वों के उर्ध्वगामी परिवर्तन तथा विकास की चर्चा हमने ऊपर की है । अब देखना है कि इन तत्त्वों को क्रम से सजाया जा सकता है या नहीं | इस प्रसंग में बौद्ध ग्रन्थों में वर्णित छः पारमिताओं पर दृष्टि डाल लेना आवश्यक है । ये पारमितायें हैं- दान, शील क्षान्ति, वीर्य, ध्यान एवं प्रज्ञा । इनमें से प्रथम तीन से प्रभ्युदय प्राप्त होता है, तथा शेष तीन से निःश्रेयस । ये सब चित्त की अवस्थायें हैं। लोक-हितार्थ फलसहित सर्वस्व त्याग करने की भावना जब पराकाष्ठा को पहुँच जाती है एवं चित्त जब मात्सर्य रहित एवं अनासक्त बन जाता है, तब चित्त की उस अवस्था को दानपारमिता की संज्ञा दी जाती है । प्राणातिपातादि सर्व प्रकार की सावध प्रवृत्तियों से विरति की भावना जब अपनी पराकाष्ठा को पहुँचती है तो मन की उस स्थिति को शील- पारमिता कहते हैं । क्रोधादि से निवृत्ति के अभ्यास का चरम उत्कर्ष ही क्षान्तिपारमिता कहलाती है । कुशल कर्मों में निरन्तर समुद्यम ही वीर्यं है । इस समुद्यम की पराकाष्ठा ही वीर्यपारमिता है । कुशल प्रवृति में सतत संलग्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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