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DHARMA AUR TATTVA
281 परन्तु अब प्रश्न यह है कि केवलाद्वीती वेदान्तियों की इस बारे में क्या मानता है ? यह तो सर्वस्वीकृत बात है कि केवलाद्वैती शुद्ध ब्रह्मचैतन्य के अतिरिक्त दूसरी किसी भी वस्तु का वास्तविक अस्तित्व नहीं मानते । यदि ऐसा है तो उनके मत से ज्ञान-व्यवस्था कैसी है ? इसका उत्तर संक्षेप में इतना ही है कि मूल केवलाद्वैती चिन्तकों ने अखण्ड ब्रह्म-विषयक निर्विकल्पक ज्ञानको ही मुख्य और पारमार्थिक प्रमाण माना है । ऐसा होने पर भी उनकी स्थिति विज्ञानवाद और शून्यवाद की अपेक्षा भिन्न है, क्योंकि केवलाद्वती परम्परा का मुख्य प्राधार उपनिषद् हैं। प्रागम रूप से उनका समावेश तो शब्दप्रमाण में ही होगा, और जहाँ शब्द प्रमाण होगा वहाँ सविकल्पक ज्ञान तो आ ही जायगा। अतएव केवलाद्वती परम्परा यदि ब्रह्ममात्र-विषयक निर्विकल्पक ज्ञान को, विज्ञानवाद की भांति, पारमाथिक प्रमाण माने, तो फिर 'तत्त्वमसि' इत्यादि आगमजन्य सविकल्पक ज्ञान का क्या हो ? विज्ञानवादी तो अनुमान और बुद्धवचन जैसे आगमों को भी सांवत कह देते थे, परन्तु केवलाद्वैती के लिए वहाँ तक पाना, अनेक कारणों से, शक्य था ही नहीं। इससे उन्होंने दुसरा मार्ग अपनाया और कहा कि ज्ञान शब्दजन्य होने से ही सविकल्पक नहीं हो जाता । शब्दजन्य होने पर भी औपनिषद ज्ञान संसनिय गाही होने के कारण निर्विकल्पक ही है और इसीलिए वह मुख्य प्रमाण है। इस प्रकार केवलादतवादियों ने अपने निर्विकल्पक ज्ञान की व्याख्या की।
ऐसा लगता है कि केवलाद्वैती परम्परायें निर्विकल्पक-सविकल्पक विषयक चर्चा का और उनकी व्याख्यानों का जो प्रवेश हुआ है वह चाहे जितना प्राचीन हो, परन्तु वह प्रवेश विज्ञानवाद और शून्यवाद के बढ़े हुए तथा बढ़ते जाते प्रभाव के बाद का ही है। इसीलिए केवलाद्वैती परम्परायें इस प्रकार की चर्चा करने वाले प्राचीन ग्रन्थ नहीं हैं और यदि हैं भी तो ये आगमशास्त्र से प्राचीन नहीं हैं। इस प्रकार देखने से ज्ञात होता है कि ज्ञान की प्रक्रियामें लोकोत्तरभूमिका का प्राश्रय लेकर विज्ञानवाद और शून्यवाद ने जो नवप्रस्थान किया उसने इतर सभी दार्शनिकों को अपना-अपना पक्ष स्थापित करने के लिए बाध्य किया, और उन पक्षों ने भी विज्ञानवादी आदि को ऐसा तो परेशान किया कि अन्त में उनको भी लोकोत्तरभूमि की मादकता में से मुक्त होकर और लौकिक भूमिका में आकर ज्ञान की प्रक्रिया का विचार सुव्यवस्थित करने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस प्रकार देखें तो भारतीय दार्शनिक और तार्किक वाङ्मय में इस चर्चा का बहुत बड़ा और रसदायी भाग है । यह चर्चा उस-उस दर्शन के चिन्तक और स्थापकों का सूक्ष्मातिसूक्ष्म बुद्धिबल और दृढ़ मनोयोग सूचित करती है।
यहाँ एक बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि जिस प्रकार विज्ञानवाद और शून्यवाद बौद्ध परम्परा की सर्वास्तिवाद और सौत्रान्तिक शाखाओं के बाद के ही क्रमिक विकास हैं और इसीलिए उनको अपनी पूर्वभूमिका जैसी उन शाखाओं का प्राश्रय क्षेकर ही शास्त्रीय चर्चा में उतरना पड़ा है, उसी प्रकार मेरी दृष्टि से, मात्र केवलाद्वैती ही नहीं, परन्तु रामानुज, वल्लभ प्रादि परम्पराएँ भी सांख्य तत्त्वज्ञान की पीठिका के ऊपर ही विकसित हुई हैं । इसीलिए उन्हें जब कभी परिभाषाओं तथा अन्य बहुत-सी बातों की आवश्यजता पड़ी तब उन्होंने सीधे तौर पर अथवा कुछ रूपान्तर करके सांख्य परम्परा
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