Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 295
________________ 284 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 1 सभी मनुष्य किसी-न-किसी धर्म-पन्थ का अवलम्बन लेकर गहरा सन्तोष अनुभव करते हैं। ये धर्म-पन्थ एक-दूसरे की मान्यता एवं पूजाप्रणालिका की भिन्नता के कारण बहुत बार लड़े-झगड़े भी हैं, परन्तु अनिवार्य रूप से सहजीवन बिताने का अवसर उपस्थित होने पर पुनः एक-दूसरे के साथ तटस्थ रहना तथा सहिष्णु बनना भी सीखे हैं। इस समय जानने योग्य बड़े और मुख्य धर्म-पन्थ लगभग तेरह हैं, यद्यपि इसके अवान्तर भेद-प्रभेद तो असंख्य हैं। धर्म के इस पहलू का स्वरूप इस प्रकार कहा जा सकता है : १. इसका प्राधार मुख्यतया श्रद्धा है। वह श्रद्धा भी किसी अगम्य एवं अलौकिक दिव्य शक्ति के प्रति होती है फिर भले ही इसके प्रतीक दृश्य और गम्य प्रकार के हों। २. श्रद्धाजीवी धर्म-पन्थों का एक लक्षण यह भी है कि वे अन्य पन्थों के साथ जो महत्व का साम्य है उसकी ओर ध्यान न देकर उनसे अपना भेद दिखलाने वाले स्वरूप पर ही ध्यान केन्द्रित करते हैं । इसके परिणामस्वरूप भेद का ही पोषण होता रहता है । ३. कोई भी धर्म-पन्थ अपने आसपास समुदाय जमा करके ही पनप सकता है । इसलिए उस-उस धर्म-पन्थ के अनुयायी व्यक्ति के मन में सर्वदा ऐसा ही विचार और उत्साह रममाण रहता है कि किसी भी प्रकार से दूसरे पन्थ के अनुयायियों को अपने पन्थ की ओर मोड़ना चाहिए । इतना ही नहीं, यदि कोई व्यक्ति उसके पन्थ का त्याग करता हो तो वह उसके प्रति घृणाभाव रखता है अथवा उदासीनता धारण करता है । ४. धर्म के पान्थिक अथवा साम्प्रदायिक पहलू के साथ अनेक तत्त्व संकलित होते हैं। उनमें से पूजा-उपासना के अमुक विशेष प्रकार, इनके लिए गुरु एवं पुरोहितवर्ग का अस्तित्व तथा उसके निर्वाह के लिए कुछ व्यवस्था, मन्दिर और तीर्थं जैसे धर्मस्थान, धर्मप्रधान नन्थ, ग्रन्थों की प्रारम्भ से ही पवित्र मानी जानेवाली कोई एक भाषा, पन्थ के अनुयायियों का क्रियाकाण्ड एवं उत्सवप्रधान सामुदायिक जीवन, अपने-अपने पन्थ के अनुयायियों में पारस्परिक एकत्व की भावना इत्यादि लक्षण प्रत्येक पन्थ में दीये जैसे स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। __ इस श्रद्धाप्रधान सम्प्रदाय का अस्तित्व मानववर्ग के साथ, उसके जीवन की भांति अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है। इसका एक और अनन्य कहा जा सके वैसा लाभ यह है कि मनुष्य केवल इन्द्रियगम्य दृश्य लोक में ही प्राबद्ध न रहकर दृष्टिमर्यादा से बाहर के ऊर्ध्वलोक की ओर भी दृष्टिक्षेप करने लगता है, उसको ध्यान में रखकर जीवन में ऊर्ध्वगामिता के पोषण के लिए यथाशक्ति पुरुषार्थ करता है और उसमें एक प्रकार की आन्तरिक तृप्ति का भी अनुभव करता है, जिसके बिना उसका जीवन नीरस और शुष्क हो जाने की अधिक सम्भावना रहती। इस ऊर्ध्वगामी जीवन की दिशा में प्रयाण करने पर बीच में अनेक वहम ओर संकुचितता के भयस्थान बाधा उपस्थित करते हैं, परन्तु अन्त में बुद्धि एवं पुरुषार्थ सहायता करके उसका उद्धार भी करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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