Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
धर्म के मूल-अनुभूति एवं तर्क
- नथमल टाटिया गत वर्ष इस विद्वद्गोष्ठी का विषय था-विश्वशान्ति के मूलाधार : अहिंसा और अनेकान्त । इस वर्ष अहिंसा, सत्य आदि जैसे धर्मतत्त्वों के आधारभूत प्रमाणों पर हम विचारविमर्श कर रहे हैं। हमारे ज्ञान के साधन मुख्यतया तीन हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम । प्रत्यक्ष का अर्थ है साक्षात् अनुभूति । अनुमान में तर्क का समावेश होता है । प्राप्त पुरुषों की अनुभूति जिस माध्यम से हमें प्राप्त होती है, उसे आगम या श्रुति कहा गया है। अतः यह आगम मूलतः अनुभूति ही है। इस प्रकार ज्ञान के साधन वस्तुतः दो ही रह जाते हैं -अनुभूति एवं तर्क । अनुभूति की यथार्थता या अयथार्थता निर्भर है अनुभव करनेवाले व्यक्ति की योग्यता पर । अनासक्त तत्त्वान्वेषी ऋषि ही सत्य का दर्शन कर सकते हैं । एवं अपने पूर्वज ऋषियों द्वारा अनुभूत सत्यों का, जो आगम या श्रुति में लिपिबद्ध हैं, संवाद भी उन्हीं द्वारा संभव है। निजी अनुभूति के दृढ़ीकरण में भी आगमों से सहायता मिलती है। इसी बात को भर्तृहरि अपने वाक्यपदीय (१.३० ) में इस प्रकार कहते हैं-ऋषीणामपि यद ज्ञानं तदप्यागहेतुकम्, अर्थात् ऋषियों की भी जो अनुभूति है वह आगम पर ही निर्भर है । भर्तृहरि के अनुसार इस पार्ष अनुभूति का खण्डन तर्क द्वारा नहीं किया जा सकता है । वे कहते हैं ( वाक्यपदीय, १.३८)
अतीन्द्रियानसंवेद्याम् पश्यन्त्यार्षेण चक्षुषा।
ये भावान् वचनं तेषां नानुमानेन बाध्यते ॥ अर्थात्, आर्ष चक्षुद्वार अतीन्द्रिय एवं दूसरे उपायों से अगम्य तत्त्वों को देखने वाले पुरुषों के वचन अनुमान द्वारा बाधित नहीं किये जा सकते ।
महर्षि मनुने भी धर्मज्ञान में आगम को ही मुख्य प्रमाण माना है। मनुस्मृति (२.१३) में कहा गया है
अर्थ कामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते ।
धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः ॥ अर्थात्, अर्थ और काम में अनासक्त व्यक्तियों के हृदय में ही धर्मज्ञान व्यवस्थित होता है । धर्म जिज्ञासुओं के लिए श्रुति अर्थात् प्रागम ही श्रेष्ठ प्रमाण है। धर्मज्ञान के मौलिक आधारों की चर्चा के प्रसंग में मनुस्मृति (२.६ एवं १२) में आगम के अलावा परम्परागत स्मृति, सदाचार एवं आत्मतुष्टि का भी उल्लेख किया गया है। आगम एवं स्मृति को तर्क द्वारा खण्डन करना मन (२.११) पसन्द नहीं करते । समाज के सामूहिक हित एवं लोक-कल्याण को ध्यान में रख कर ही उन्होंने ऐसी व्यवस्था की है।
पुण्य और पाप की पहिचान कोई व्यक्ति आसानी से अपने हृदय में कर सकता है। इसके लिए शास्त्र की आवश्यकता नहीं है । भर्तृहरि स्पष्ट कहते हैं (वाक्यदीय, १.४०)१. ८ अप्रील १९७१ को विद्वद्गोष्ठी में पठित निबन्ध ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org