Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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VIŚVAŚANTI KE MŪLĀDHĀRA: AHIMSA EVAM ANEKANTA 223
अहिंसा का बाह्य रूप है, असली हिंसा स्वार्थ भावना का पूर्ण उच्छेद है । ऐसी श्रहिंसा का पालन आध्यात्मिक साधक ही कर सकते हैं ।
अहिंसा का सामाजिक न्यूनतम रूप यह है कि हम अपने और दूसरों के हितों के बीच न्याय भावना का पालन करते हुए सामंजस्य रखें। अपने लिए, अपने सम्बन्धियों और जाति के लिए, अन्याय करना एक प्रकार की हिंसा है- क्योंकि उससे दूसरों के हित की हानि होती है । अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में जब एक देश दूसरे को दबाकर उसका शोषण करना चाहता है तो शोषक देश का व्यवहार हिंसा पूर्ण बन जाता है। इससे स्पष्ट है कि अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए अहिंसामूलक न्याय का पालन नितान्त जरूरी है ।
जैन धर्म और दर्शन की दूसरी महत्वपूर्ण देन अनेकान्तवाद का सिद्धान्त है । ज्ञान मीमांसा में जैन दर्शन वस्तुवादी है, हिन्दुओं का न्याय दर्शन भी वस्तुवादी है । वस्तुवादी से तात्पर्य इस मान्यता से है कि ज्ञेय पदार्थ ज्ञान और ज्ञाता का निरपेक्ष होता | विज्ञानवादी बौद्ध कहते हैं कि नील और नील बुद्धि एक ही है, क्योंकि उनका ग्रहण साथ-साथ होता है; इस तर्क को सहोपलम्भ नियम कहते हैं । वस्तुवादी ज्ञान और अर्थ में भेद मानते हैं, और यह मानते हैं कि अर्थ के अनुरूप ही ज्ञान होता है । अनेकान्तवाद के अनुसार प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं । उनमें से कुछ परस्पर विरोधी भी हो सकते हैं। अपने प्रयोजन के अनुसार, या अपने दृष्टिकोण के अनुसार, द्रष्टा वस्तु में एक या दूसरे धर्म को देखता और उसका उल्लेख करता है । एक दृष्टि से जो है, दूसरी दृष्टि से उसका अभाव भी कहा जा सकता है । जैन तर्कशास्त्र सप्तभंगी की वचन शैली को मानता है । जैनियों के अनुसार प्रत्येक सत्पदार्थ उत्पाद, व्यय एवं ध्रुवता से संयुक्त होता है । किसी वस्तु का द्रव्य नहीं बदलता, जिससे उसमें 'वही है' की भावना होती है; किन्तु उसके पर्याय बदलते रहते हैं । इसलिए एक ही वस्तु ध्रुव या नित्य भी है और पर्यायों की दृष्टि से अनित्य भी । स्याद्वादमञ्जरी के अनुसार वस्तु में नाना धर्मों का स्वीकार ही अनेकान्तवाद है, कथनों के रूप में इस सिद्धान्त को प्रकट करना ही स्याद्वाद है ।
हमारे देश में प्राय: प्राचीन शिक्षात्रों को असमीक्षित रूप में मानकर चलने की प्रथा है । लेकिन इस तरह की स्वीकृति से विशेष लाभ नहीं होता । पुरानी शिक्षाओं को इस ढंग से देखना और आँकना चाहिए कि वे हमारी जीवन्त चेतना का अंग बन जायें। हमारे अपने युग में, हर क्षेत्र में, नये प्रश्न उठ रहे और उठाये जा रहे हैं । ऐसी स्थिति में हमारे लिए वही प्राचीन शिक्षायें उपयोगी हो सकती हैं जो आज की समस्याओं को हल करने में मदद दे सकती हैं । प्राचीन जैन चिन्तकों ने अनेकान्तवाद का प्रयोग उस समय के दार्शनिक विवादों का हल खोजने में किया था। उदाहरण के लिए न्याय-वैशेषिक के अनुसार सामान्यों का
आभास होता है । इसके
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इस विवाद का, और
अलग अस्तित्व है जिसके कारण हमें समान वस्तुनों में अनुवृत्ति का विपरीत बौद्ध विचारक सामान्य को अपोह रूप में कथित करते हैं ऐसे दूसरे विवादों का अनेकान्तवाद ने अपना समाधान प्रस्तुत किया । दूसरे प्रश्न और विवाद चल रहे हैं । हमारा विचार है कि अनेकान्त का सिद्धान्त उन विवादों के लिए आज भी महत्व रखता है और उसका उपयोग आज के विवादों को सुलझाने
आज के दर्शन-क्षेत्र में
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