Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
आर्य बनाम अनार्य
नथमल टाटिया
[ १ ] मनुस्मृति ( २।२२ ) में आर्यावर्त की सीमा का निर्देश करते हुए कहा गया है -- पूर्व समुद्र तथा पश्चित समुद्र और हिमाचल एवं विन्ध्याचल पर्वत के मध्यस्थित देश को बुधजन आर्यावर्त कहते हैं । विन्ध्य के दक्षिण में आर्यों के विस्तार का उल्लेख मनु ने नहीं किया है। बल्कि, उन्होंने तो आर्यावर्त के ही अन्तर्गत मल्ल, लिच्छवी आदि जातियों को व्रात्य क्षत्रियों से उत्पन्न माना है ( मनु० १०।२२ ) जो अव्रत अर्थात् यज्ञोपवीतहीन एवं सावित्री से परिभ्रष्ट होते थे । आर्यलोगों के विरोधी के रूप में दस्युओं तथा दासों के उल्लेख ऋग्वेद ( ५।३४।६, ३।३४।६ आदि ) में आते हैं और यह बात यहाँ निःसन्देह कही जा सकती है कि उत्तर भारत की वह प्रजा जो पश्चिम से पूर्व की और अपना विस्तार करती गयी, अपने को आर्य कहती थी तथा पहले से बसी हुई एक भिन्न संस्कृति वाली प्रजा को दस्यु कहकर उसे अव्रत या अन्यव्रत मानती थी । इस दस्यु प्रजा के विभिन्न घटकों को आर्येतर होने के कारण हम अनार्य कह सकते हैं । श्रनायं शब्द का अर्थ असभ्य भी होता है, किन्तु, प्रस्तुत प्रसंग में वह श्रमिप्रेत नहीं है । यहीं अनायं शब्द से हमारा तात्पयं आर्येतर प्रजा से है, जो कालक्रम से आर्यों मे घुल-मिल गयी । सच्चाई तो यह है कि आर्यो की प्राचीन संस्कृति क्रमशः बदलती गयी और कालान्तर में उसने एक नयी संस्कृति का रूप धारण कर लिया। आर्य-अनार्य का जाति-भेद सर्वथा समाप्त होकर एक नई जाति में परिणत हुआ, जिसे आज हम हिन्दू जाति कहते हैं । लौकिक संस्कृत में आयं शब्द एक विशेषरण पद मात्र बनकर रह गया। आर्य शब्द के मूलभूत ॠ धातु ( ऋ गति प्रापणयोः ६६१ ) से उत्पन्न आर्य शब्द का अर्थ पाणिनि ने ( अष्टाध्यायी ३।१।१०३ में ) स्वामी एवं वैश्य किया है | पक्षान्तर में, आर्य शब्द का यौगिक प्रथं प्राप्तव्य होता है जिससे श्रेष्ठ, पूज्य श्रादि औपचारिक अर्थ निकल आते हैं । अतः सज्जन, सभ्य, साधु आदि रुढ़ अर्थों में इस शब्द का बहुधा प्रयोग देखा जाता है । श्रीमद्भगवद्गीता ( २२ ) के 'अनार्यजुष्ट' श्रार्ग शब्द का अर्थ श्रेष्ठ पुरुष है । कालिदास ने श्रभिज्ञानशाकुन्तलम् के 'यदार्यमस्यामभिलाषि मे मनः' ( प्रथम अंक ) में आर्य शब्द का प्रयोग साधु अर्थ में किया है | अमरकोष ( ब्रह्मवर्ग ५ ) सभ्य, सज्जन एवं साधु शब्द समानार्थक माने गये । किसी आर्य शब्द का प्रयोग पाणिनि काल के पूर्व ही लुप्त हो गया सा प्रतीत होता है । परवर्ती काल में यह शब्द अपने यौगिक और रूढ़ अर्थों में ही सिमट कर रह गया, ऐसा कहा जा सकता है ।
शब्द
में
महाकुल, कुलीन, श्रार्य, प्रजा विशेष के लिए
[ २ ] जैन श्रागम ( पण्णवरणा ९७ - १३८ ) में कर्मभूमि के ( संस्कृत - आयं ) एवं मिलेच्छ या मिलक्खु ( संस्कृत - म्लेच्छ ) -- इन दो
१. अप्रैल १, १९६९, को विद्वद्गोष्ठी में पढ़ा गया ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
मनुष्यों को आरिय भागों में बाँट दिया
www.jainelibrary.org