Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 1
२. प्रस्तुत विषय को समझने के लिए महाभारत तथा कौटिल्य अर्थशास्त्र में वरिणत चार मूलभूत विद्याओं पर दृष्टि डालना आवश्यक है। ब्रह्मा द्वारा रचित नीतिशास्त्र में वर्णित विद्याओं के उल्लेख के प्रसंग में महाभारत कहता है--
त्रयी चान्वीक्षिकी चैव वार्ता च भरतर्षभ । दण्डनीतिश्च विपुला विद्यास्तत्र निदर्शिताः ॥ ( वही ५९-३३ )।
कौटिल्य अर्थशास्त्र के विद्योद्वेश प्रकरण में भी इन चार विद्याओं का उल्लेख है। कौटिल्य के अभिप्राय का स्पष्टीकरण महामहोपाध्याय डा० योगेन्द्रनाथ वाग्ची ने अपने "प्राचीन भारत को दण्डनीति" ( पृष्ठ ४६-४७ ) में किया है। न्यायभाष्यकार वात्स्यायन ने भिन्न-भिन्न विद्याओं के ज्ञान और फलों का विवेक करते हुए कहा है- तदिदं तत्त्वज्ञानं निःश्रेयसाधिगमश्च यथाविद्य वेदितव्यम् । इसी भाष्य की व्याख्या में वात्तिककार उद्योतकर ने कहा है कि प्रत्येक विद्या में ही तत्त्वज्ञान है और निःश्रेयस प्राप्ति भी है। त्रयी विद्या का तत्त्वज्ञान है अग्निहोत्रादि कर्मों के क्रमिक अंग आदि का परिज्ञान एवं किस प्रकार कर्म करने पर कर्म सफल होगा आदि व्यौरों की जानकारी। एवं स्वर्ग प्राप्ति है इस विद्या का निःश्रेयसाधिगम । आन्वीक्षिकी विद्या में प्रात्मा आदि पदार्थों का परिज्ञान ही तत्त्वज्ञान, एवं मोक्षप्राप्ति निःश्रेयसाधिगम है। वार्ता विद्या में कृषि, वाणिज्य, पशु-पालन आदि का ज्ञान तत्त्वज्ञान है एवं इन साधनों द्वारा धनलाभ ही इसका निःश्रेयसाधिगम है। दण्डनीति विद्या में साम, दान, भेद, दण्ड आदि उपायों का ज्ञान तत्त्वज्ञान एवं राज्यलाभ निःश्रेयसाधिगम है ।
___इन विद्याओं के पारस्परिक सम्बन्ध के बारे में मतभेद है। कौटिल्य अर्थशास्त्र के विद्योद्देश प्रकरण में कहा गया है कि मनु के शिष्यवर्गों ने त्रयी, वार्ता और दण्डनीति ये तीन ही विधायें मानी है, आन्विक्षिकी को त्रयी के अन्तर्गत माना है । वृहस्पति के अनुयायियों ने वार्ता और दण्डनीति दो ही को विद्या कहा है। शुक्राचार्य की शिष्यपरम्परा में दण्डनीति ही एकमात्र विद्या कही गयी है। किन्तु कौटिल्य ने चार विद्यायें मानी है। ( देखो-प्राचीन भारत को दण्डनीति, पृष्ठ ४६-४७)
प्रस्तुत प्रसंग में हमें त्रयी और प्रान्वीक्षिकी को धर्मनीति के अन्तर्गत एवं वार्ता और दण्डनीति को राजनीति के अन्तर्गत मानकर, धर्मनीति और राजनीति के पारस्परिक सम्बन्धों पर विचार करना है। वार्ताविद्या अब राजनीति का ही अंग मानी जाती है, इसलिए यदि हम 'राजनीति' या प्राचीन 'अर्थशास्त्र' शब्द का प्रयोग सामूहिक रूप से वार्ता और दण्डनीति के अर्थ में करें तो वह प्रयोग असंगत नहीं होगा।
३. धर्मनीति का विधान धर्मशास्त्रों में किया गया है तथा राजनीति का अर्थशास्त्रों में | ये दोनों शास्त्र अपने अपने विषय में स्वतंत्र हैं। सत्य तो यह है कि अर्थशास्त्र धर्मशास्त्र का परिपालक है। अर्थशास्त्र या दण्डनीति के नाश से अन्य सब धर्म नष्ट हो जाते हैं । महाभारत कहता है
मज्जेत् त्रयी दण्डनीतो हतायां सर्वे धर्माः प्रक्षयेयुर्विवृद्धाः । सर्वे धर्माश्चाश्रमाणां हताः स्युः क्षात्रे व्यक्ते राजधर्म पुराणे ॥
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