Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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धर्मनीति और राजनीति
नथमल टाटिया १. 'धर्म' शब्द का प्रयोग कई अर्थों में हुआ है, पर प्रस्तुत प्रसंग में साक्षात् रूप से निःश्रेयस एवं आनुषंगिक रूप से अभ्युदय के साधन को ही 'धर्म' मान कर हम उस पर विवेचन करेंगे। 'नीति' शब्द से हमारा अभिप्राय है नय अर्थात् आधारभूत दृष्टि एवं उस दृष्टि के पोषक उपायभूत नियम-उपनियमों से । महाभारत के शांतिपर्व में नीतिशास्त्र के विषयों के बारे में कहा गया है
यर्यरुपायर्लोकस्तु न चलेदार्यवर्मनः ।
तत्सर्वं राजशार्दूल नीतिशास्त्रेऽमिवणितम् ।। ( ५९.७४ ) अर्थात् जिन जिन उपायों द्वारा यह जगत् सन्मार्ग से विचलित न हो उन सबका नीतिशास्त्र में प्रतिपादन किया जाता है। 'राजनीति' शब्द के पर्याय के रूप में हमारे प्राचीन साहित्य में 'दण्डनीति' शब्द का प्रयोग आता है जिसे अर्थशास्त्र भी कहा गया है। 'दण्डनीति' शब्द को व्याख्या महाभारत में इस प्रकार की गई है----
दण्डेन नीयते चेदं दण्डं नयति वा पूनः।
दण्डनीतिरिति ख्याता श्रीन लोकानभिवर्तते । ( शांतिपर्व, ५९.७८ ) अर्थात् जिस नीतिशास्त्र के अनुसार दण्ड द्वारा जगत् का सन्मार्ग पर स्थापन किया जाता है अथवा राजा जिसके अनुसार प्रजावर्ग में दण्ड की स्थापना करता है, वह दण्डनीति के नाम से विख्यात है, जिसका प्रभाव तीनों लोकों में व्याप्त है। यद्यपि राजनीति का साक्षात् फल है अभ्युदय अर्थात् लौकिक उन्नति, पर परम्परया शांति एवं समृद्धि की स्थापना द्वारा वह निश्रेियसका भी साधक बनता है।
निष्कर्ष यह है कि साक्षात् रूप से आध्यात्मिक तथा आनुषंगिक रूप से लौकिक उत्कर्ष के साधनभूत नीतियों का समावेश धर्मनीति में है, एवं उन नीतियों को कार्यान्वित करना तथा उनकी मर्यादाओं को सुरक्षित रखकर लौकिक उन्नति का साधन दण्डनीति का उद्देश्य है । विचारालयों की दण्डव्यवस्था दण्डनीति का ही एक क्षुद्र अंग है। दण्डनीति शास्त्र में साम, दान, भेद, दण्ड प्रादि उपायों का पूर्णतः समावेश होता है और भिन्न-भिन्न राष्ट्रों का पारस्परिक सम्बन्ध ऐवं एक ही राष्ट्र के अन्तर्गत अंगीभूत राज्यों की नियंत्रण-व्यवस्था भी इसी शास्त्र का विषय है। राजा-प्रजा का सम्बन्ध, राष्ट्रहितकर कार्य, प्रजाओं का पारस्परिक सम्बन्ध आदि विषय भी दण्डनीति के ही अन्तर्गत हैं। पर इन विषयों की चर्चा प्रसंगप्राप्त नहीं है, हमें तो केवल धर्मनीति और दण्डनीति के पारस्परिक सम्बन्ध पर विवेचन करना है। १. अप्रील २२, १९६७, की विद्वद्गोष्ठी में पढ़ा गया।
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