Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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DHARMA AUR TATTVA
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विकास क्रम के अनुसार ही, ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए और उसी के अनुरूप अध्ययन-अध्यापन की प्रणाली नियत करनी चाहिए। आज तो प्राचीन और अर्वाचीन दोनों प्रकार की दार्शनिक अध्ययन की परिपाटी में ऐसा क्रम शायद ही देखा जाता है। फलतः प्राचीन पाठशालानों में तथा अर्वाचीन विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में-जहाँ कहीं दार्शनिक अध्ययन-अध्यापन चलता है वहाँ-प्रायः सर्वत्र उक्त मूल सिद्धान्तों के स्पष्ट एवं परिपक्व ज्ञान की कमी ही देखी जाती है।
अब हम देखें कि उक्त सिद्धान्तों का सर्वाधिक प्राचीन और व्यवस्थित निरूपण किन-किन दर्शनसूत्रों में लभ्य है तथा किस दर्शन ने उनके विकास में विशेष योग दिया है। जैसा मैं समझा हूँ, दार्शनिक सूत्रों में उक्त सिद्धान्तों का वैसा निरूपण करणावसूत्रों और अक्षपावसूत्रों में ही पाया जाता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन के चिन्तकों ने ही इन सिद्धान्तों को, दूसरे किसी भी दर्शन के चिन्तकों की अपेक्षा, अधिक गहराई से चर्चा की है और उनमें विचार की सूक्ष्मता दिखलाई है। इसीलिए हम देखते हैं कि सांख्ययोग, जैन-बौद्ध एवं पूर्व-उत्तरमीमांसा के सूत्रकारों ने तथा उन सूत्रों पर व्याख्या, अनुव्याख्या अथवा उपानुव्याख्या लिखनेवालों ने न्याय-वैशेषिक परम्परा द्वारा प्रस्तुत की गई उक्त सिद्धान्तों की विचारसमृद्धि और परिभाषात्रों का ही अधिकांशतः उपयोग किया है और उसमें अपनी मान्यता के अनुरूप प्रावश्यक परिवर्तन या रूपान्तर भी किया है । इस बात को कतिपय दृष्टान्तों के द्वारा स्पष्ट करें।
कणाद एवं प्रक्षपाद के पूर्वज चिन्तकों ने और स्वयं कणाद तथा अक्षपाद ने अपने-अपने सूत्रों में जो विचारणा उपस्थित की है वैसी विचारणा कणाद और अक्षपाद के सूत्रों से पहले किसी भी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होती। कणाद ने अपने दर्शन की नीव साक्षात् इन्द्रियावलोकन तथा तदाश्रित मनोज्ञान के ऊपर रखी है । इस अवलोकन तथा तदाश्रित चिन्तन के आधार पर ही उसने अपने प्रमेय-निरूपण में कार्यकारणभाव का सिद्धान्त स्पष्ट किया है । यह प्रमेय निरूपण इतर दर्शनों को मान्य है या नहीं यह अलग प्रश्न है, परन्तु उसने कार्यकारणभाव का स्वरूप इतना अधिक स्पष्ट किया है कि दुसरे दार्शनिकों को उसी का कार्यकारणभाव का सिद्धान्त और उसके साथ संकलित अन्यान्य बातें जैसी की तैसी लेनी पड़ी हैं। अन्वय और व्यतिरेक ये दो कार्यकारणभाव के नियामक तत्त्व हैं। इसी विचार में आगे जाकर प्रतिबध्य, प्रतिबन्धकभाव एवं उत्तेज्यउत्तेजकभाव की चर्चा का समावेश हुमा, अन्यथासिद्धि एवं अनन्यथासिद्धि के विचार की चर्वणा हुई, उपादान अथवा समवायी और निमित्त कारण के रूप में कारणों के वैविधा का निरूपण हुमा, स्वरूपकारणता तथा फलोपधायककारणता जैसे मुद्दे भी चर्चा में प्रविष्ट हुए तथा सामग्रीकारणत्यवाद भी स्पष्ट हुमा।
लक्ष्यलक्षणभाव की विस्तृत चर्चा का, जो कि दार्शनिक युग का एक विशिष्ट स्वरूप है, व्यवस्थित आधार कणाद के सूत्रों में ही सर्वप्रथम उपलब्ध होता है, और इसीलिए सदोष-निर्दोष लक्षण की जैसी और जितनी सूक्ष्म चर्चा न्याय-वैशेषिक साहित्य में हम देखते हैं वैसी और उतनी इतर दर्शनों के वाङमय में उपलब्ध नहीं होती और
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