Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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धर्म और तत्त्व
सुखलालजी संघवी मित्रो,
अवस्था भी हुई और स्वास्थ्य भी ठीक नहीं है; अतः सामान्य रूप से तत्त्वज्ञान के विषय में जो विचार आते हैं उन्हीं को भाप के समक्ष उपस्थित करके सन्तोष मानता हूँ, और साथ-ही-साथ आप सबका आभार भी मान लेता हूँ।
भारतीय तत्त्वज्ञान अनेक सम्प्रदायों और उनकी शाखा-प्रशाखामों में विभक्त है। इसका इतिहास एवं विकाश-क्रम अत्यन्त दीर्घ है। मैं यहाँ सर्वप्रथम कुछ ऐसे सिद्धान्तों के विषय में कहना चाहता हूँ जो कि प्रत्येक सम्प्रदाय को मान्य है और एक अथवा दूसरे रूप में उन सिद्धान्तों के आधार पर ही उन-उन दर्शनों एवं उपदर्शनों ने औरों से अलग पड़ने वाली अपनी मान्यताओं का समर्थन किया है। वे सिद्धान्त संक्षेप में अधोलिखित हैं।
(१) कार्यकारणभाव, (२) लक्ष्यलक्षणभाव, (३) अनुमानप्रकार अथवा न्यायवाक्य, (४) परीक्षापद्धाते, (५) ज्ञान एवं विचारोत्पत्ति का क्रम, (६) वचन-प्रामाण्य का मूल बीज, और (७) प्रामाण्य-प्रप्रामाण्य की समीक्षा।
पिछले दो-ढाई सहस्र वर्षों में पूर्वप्रचलित और नव-विकसित कोई भारतीय दर्शन ऐसा नहीं है जिसने उपयुक्त मूल सिद्धान्तों का प्रश्रय लिये बिना अपने मन्तव्यों की स्थापना की हो अथवा इतर मन्तव्यों का खण्डन किया हो। इन सिद्धान्तों के महत्त्व को सबने मान्य रखा है और इसीलिए प्रत्येक दर्शन एवं उसकी शाखाओं ने अपने मन्तव्यों की उपपत्ति के लिए इन मूल सिद्धान्तों का सहारा तो लिया ही है, साथ ही इन सिद्धान्तों को, अपनी-अपनी मान्यता का समर्थन करने की दृष्टि से, घटाया है और विकसित भी किया है।
इन मूल सिद्धान्तों का दार्शनिक विचार वर्तुल में जिस कालक्रम से और जिस परम्परा के मुख्य प्राश्रय से स्पष्ट निरूपण हुआ है तथा जिन परम्पराओं ने इनके विकास में सबसे पहले और सबसे अधिक महत्व का योगदान दिया है उनको भूलकर यदि हम किसी भी एक दर्शन का अध्ययन-चिन्तन करें तो उस अध्ययनचिन्तन में उपयोगी हो सके वैसी कड़ी या कुंजी ही हमारे हाथ में से सरक जायगी। हम भले ही किसी एक अभिप्रेत दर्शन का अथवा उसकी शाखा-प्रशाखा का प्रामाणिक एवं सही ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करें, परन्तु हमें उक्त मूल सिद्धान्तों का, उनके
१. १४-१५ अक्टूबर, १९६१ को अखिल भारतीय प्राच्यविद्या परिषद् (२१वां
अधिवेशन, श्रीनगर) के "धर्म और तत्त्वज्ञान" के विभागाध्यक्ष का अभिभाषण ।
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