Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. I
प्रकार की पाप क्रिया में प्रवृत्त होना इस व्रत का भंग करना है । (२) उपभोगपरिभोगवत अर्थात् सचित्त आहार और प्रौषषि एवं हिंसक व्यवसाय वाणिज्य से विरति । मांसादि का भक्षण एवं अंगारकर्म, वनकर्म, दन्तवाणिज्य आदि इस व्रत के अतिचार गिनाये गये हैं । (३) श्रनर्थदण्ड से विरति प्रर्थात् निरर्थक पाप प्रवृत्ति से विरत रहना । असभ्य भाषण, मुखरता, शारीरिक कुचेष्टा, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह आदि इस व्रत के अतिचार हैं । ( ४ ) सामायिकव्रत अर्थात् अभिगृहीत समय तक पापाचरण से निवृत्त रहना । सब प्रकार की सावद्य प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर श्रात्मचिन्तन का अभ्यास ही सामायिक व्रत है । एकाग्रता का विक्षेप इस व्रत का प्रतिचार माना जाता है । (५) देशावका शिकव्रत अर्थात् किसी स्थान - विशेष में अवस्थित रहने का व्रत । नियत स्थान में रह कर भी अन्य किसी व्यक्ति द्वारा या शब्दप्रयोग या संकेत द्वारा मर्यादित स्थान से बाहर की किसी वस्तु को मँगवा लेना या कोई काम करवा लेना इस व्रत का प्रतिचार माना गया है । (६) पौसधोपवास व्रत अर्थात् श्रष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा आदि तिथि में उपवास धारण कर उपाश्रय आदि में रह कर धर्मोपासना करना । सर्व प्रकार के सावद्य कर्मों से विरत होकर निर्धारित समय के लिए साधु जीवन का पालन इस व्रत में किया जाता है । साधु जीवन के प्रतिकूल किसी प्रकार की क्रिया करना इस व्रत का प्रतिचार गिना गया है । ( ७ ) यथासंविभागव्रत अर्थात् कल्प्य वस्तुओं का योग्य पात्रों को दान करने का व्रत । नहीं देने के अभिप्राय से वस्तु को प्रकल्प्य बना देना या मात्सर्यवश दान देना, आदि इस व्रत के प्रतिचार हैं ।
गृहस्थों के निमित्त विहित ये बारह व्रत स्पष्टतः निवृत्ति-प्र - प्रधान हैं। सांसारिक प्रवृत्तियों से यथाशक्ति निवृत्त होने का इनमें उपदेश है । प्रादर्शभूत साधु जीवन के ही नुरूप श्रावकधर्म की कल्पना की गई है । ये व्रत सामाजिक जीवन को सरल उज्ज्वल और सन्तुलित करने में सहायक होते हैं । पर सामाजिक जीवन के पारस्परिक व्यवहारों पर ये प्रकाश नहीं डालते ।
नये पाप कर्मों से आत्मा को संवृत रखने के निमित्त गुप्ति, मार्दव, आर्जव, आदि), अनुप्रेक्ष, परीषहजय एवं चारित्र तथा लिए तपश्चरण का विधान किया गया है। गृहस्थों के लिए ये नहीं किये गये हैं । अतएव इनकी चर्चा यहां प्रासंगिक नहीं है ।
२. गौतम बुद्ध का श्रावक धर्म :
अब हम गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित गृहिविनय पर दृष्टि डालें । पालि पिटक के अन्तर्गत दीघनिकाय के सिंगालोवाद-सुत्तन्त में गृहिधर्म प्रतिपादित किया गया है । इसे गृहिविनय सुत्तन्त भी कहा जाता है । बुद्धघोष कहते हैं - इमस्मि च पन सुत्ते यं गिहीहि कत्तब्ब- कम्मं नाम तं कथितं नत्थि, अर्थात् गृहस्थों का ऐसा कोई कर्तव्य कर्म नहीं है जो इस सुत्तन्त में नहीं कहा गया हो । एक समय भगवान् बुद्ध राजगृह के वेणुवन में विहार रहे थे । उस समय सिंगाल नामक एक गृहपति पुत्र को बुद्ध ने इस गृहिविनय का
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समिति, धर्म (क्षमा, संचित कर्मों के क्षय के विशेष रूप से विहित
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