Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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विश्वशान्ति के मूलाधार - अहिंसा एवं अनेकान्त *
एन० के० देवराज
माननीय अध्यक्ष, डा० टाटिया और मित्रों,
मैं इस शोध संस्थान के अधिकारियों के प्रति, जिन्होंने मुझे आमन्त्रित करके इस उत्सव में सम्मिलित होने का अवसर दिया, हृदय से आभार प्रकट करता हूँ ।
हमारा देश और उसकी संस्कृति बड़ी प्राचीन है । शुरू से इस संस्कृति में दो धाराओं का सम्मिश्रण रहा है । एक वैदिक आर्य संस्कृति की धारा और दूसरी श्रमण संस्कृति की धारा । श्रमण संस्कृति में बौद्ध और जैन परम्पराओंों का अन्तर्भाव होता है । इसमें हिंसा के प्रचार का सबसे अधिक श्रेय जैन संस्कृति और परम्परा को है । जैन परम्परा की दूसरी महत्वपूर्ण देन अनेकान्तवाद का सिद्धान्त है । उक्त संस्कृति के ये दोनों तत्त्व विश्वशान्ति को अग्रसर करने वाले हैं ।
वैदिक आर्य माँस भक्षण से परहेज नहीं करते थे । भवभूति के उत्तर रामचरित के चौथे अंक में श्रापस्तम्बधर्मसूत्र के एक उद्धरण के साथ यह उल्लेख किया गया है कि वशिष्ठ मुनि के सत्कार के लिये दो वर्ष की बछिया का हनन किया गया। उन दिनों मो माँस का उपभोग विशिष्ट अतिथियों के लिये किया जाता था । संस्कृत में अतिथि का नाम गोघ्न मी है— अर्थात् वह जिसके लिये गौ का वध किया जाय जैन धर्म की विशेष शिक्षा है । थाइलैण्ड आदि के बौद्ध लोग करते, बुद्धजी के मांस-मक्षरण के भी उल्लेख मिलते हैं ।
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मांसाहार का पूर्ण परित्याग मांस भक्षण से परहेज नहीं
लेकिन अहिंसा का अर्थ केवल जीवों के वध और मांस भक्षण से परहेज नहीं है । हमारे यहाँ अहिंसा को धर्म का मूल कहा गया है, महाभारत में अहिंसा का स्थान सत्य से भी ऊपर बताया गया है । कहा गया है : 'हिसार्थ हि भूतानां धर्म-प्रवचनं कृतम्', अर्थात् धर्म का उपदेश हिंसा के निवारण के लिये है । चतुःशतक के टीकाकार चन्द्रकीर्ति ने एक उद्धरण दिया है जिसके अनुसार तथागत लोग धर्म को अहिंसा प्रधान मानते हैं । योगदर्शन के प्रणेता पतंजलि ने धर्मों में अहिंसा को पहला स्थान दिया है । धर्मो में अपरिग्रह का भी समावेश है । हमारे अपने युग में गांधीजी ने अपरिग्रह पर विशेष जोर दिया है । वस्तुत: अहिंसा और अपरिग्रह में घना सम्बन्ध है । प्रश्न है, हम हिंसा क्यों करते हैं ? उत्तर है, अपने व्यक्तित्व के पोषण के लिए, अपने और अपनों की स्वार्थपूर्ति के लिए । हमारे सब तरह के गलत आचरण के मूल में आत्मप्रेम, आत्मकेन्द्रित होने की वृत्ति होती है । जबतक हम पूर्णतया निस्वार्थ न बन जायें- गांधी जी के शब्दों में जब तक हम पूरे-पूरे अपरिग्रही न बन जायें - तबतक हम हिंसा से पूर्णतया विरत नहीं हो सकते । इससे जाहिर है कि अहिंसा का पूरा-पूरा पालन बहुत कठिन है । केवल जीवों के वध से विरत होना
* विद्वद्गोष्ठी, अप्रील १८, १९७० में दिया गया उद्धघाटन भाषण ।
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