Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 1
में किया जा सकता है। चिन्तन के इतिहास में हमेशा ही ऐकान्तिक दृष्टियों का प्रतिपादन होता आया है, अतएव हमेशाही अनेकान्त पर गौरव देने की जरुरत होती है। उदाहरण के लिए तर्कनिष्ठ अनुभववादियों ( Logical Empiricists or positivists ) ने अर्थवान् कथनों की एक परिभाषा दी, यह परिभाषा विज्ञान के कथनों को देखकर बनायी गयी थी। इस परिभाषा के अनुसार अर्थवान् कथन वह है जिसका इन्द्रियअनुभव के जरिए परीक्षण हो सके-जिसे सही मानने का अर्थ गोचर जगत में किसी तथ्य की प्रत्याशा करना है। अर्थवत्ताकी कसौटी का प्रयोग करते हुए उन्होंने कहा-तत्त्वमीमांसा के कथन प्रायः गोचर, अनुभव द्वारा परीक्षणीय नहीं होते, इसलिए वे निरर्थक होते हैं। इस दृष्टि से "ईश्वर है" और "ईश्वर नहीं है" ये दोनों कथन निरर्थक हैं । गलत नहीं निरर्थक । यहाँ प्रश्न उठता है-यह क्यों माना जाय कि सब तरह के अर्थवान् कथन एकही कोटि के होते हैं ? उदाहरण के लिए तर्कनिष्ठ भाववादियों का यह कथन कि "अर्थवान् कथन परीक्षणीय होते हैं" स्वयं इन्द्रिय-अनुभव द्वारा परीक्षणीय नहीं हैं। अनेकान्तवाद के अनुसार प्रत्येक कथन किसी अपेक्षा या प्रयोजन से नियन्त्रित और उसी के अनुरूप सत्य होता है । मतलब यह कि विभिन्न कथनों की सत्यता भिन्न कोटियों की होती है, वह विभिन्न दृष्टियों और प्रयोजनों की सापेक्ष होती है।
___ इस मत की पुष्टि में हम ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या में संकेतित किये जाने वाले कारणों का उल्लेस कर सकते हैं। ऐतिहासिक घटनाओं और स्थितियों की व्याख्या के अनेक स्तर या धरातल होते हैं । एक धरातल पर हम कहते हैं कि हमारे देश को गांधीजी ने स्वतंत्र किया । व्याख्या के दूसरे स्तर पर कहा जायगा कि गांधी का व्यक्तित्व और उनकी सत्याग्रह की पद्धति वे उपकरण थे जिनके द्वारा भारतीय जनता को भय की स्थिति से निकाल कर संगठित किया गया। अन्तत: स्वतंत्रता का कारण इस संगठित जनता का दबाब था जो ब्रिटिश सरकार पर पड़ा। यह भी संभव था कि गाँधीजी के बदले कोई दूसरा नेता जनता को दूसरे ढंग से संगठित करता । तात्पर्य यह कि यदि गांधी का जन्म न हा होता, तो भी भारत स्वतंत्र होता, लेकिन दूसरे तरीके से और शायद पन्द्रह अज्ञस्त १९४७ के बदले किसी और वर्ष में और किसी दूसरी तिथि में । इतिहास की व्याख्या करते हुए हम कब किस हेतु को कितना महत्व देंगे, यह हमारे यानी इतिहासकार के, प्रश्न के स्वरूप और व्याख्याता के प्रयोजन पर निर्भर करता है। हमारे कथन दृष्टि-सापेक्ष या प्रयोजन-सापेक्ष होते हैं, यह अनेकान्तवाद का मूल तात्पर्य है। इस प्रकार हम देखते हैं कि उक्त सिद्धान्त की आज भी उपयोगिता है। यदि किसी प्राचीन मान्यता में बल है तो वह आज भी उपयोगी होगी नहीं तो श्रद्धापूर्वक उस मान्यता को दुहराते रहने से कोई लाम नहीं है।
__ मैं इस वक्तव्य के साथ आपकी संगोष्ठी की सफलता के लिए शुभ कामना करता है।
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