Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 1
Author(s): Nathmal Tatia
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 1
सामाजिक गुटों के लिए धर्म में समावेश कर दिया गया है । इस प्रसंग में जैन आचार्य हरिभद्र के विचार माननीय हैं। वे कहते हैं कि जो कार्य लोकरंजन के लिए किया जाता है एवं जिससे अन्त:करण की मलिनता दूर नहीं होती, उसे लोकपंक्ति की संज्ञा दी जाती है । यह लोकपंक्ति भी परम्परया धर्म ही है । ( योगबिन्दु ९० ) । लोक कल्याण के लिए जो भी किया जाय वह सब धर्म है । धर्म देशनाओं की विविधता का आधार शिष्यों की योग्यतायें हैं । प्राचार्य हरिभद्र कहते हैं ( योगदृष्टिसमुच्चय, १३२ ) -
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चित्रा तु देशनैतेषां स्याद्विनेयानुगुण्यतः । यस्मादेते महात्मानों भवव्याधिभिषग्वराः ॥
अर्थात्, शिष्यों की योग्यताओं के अनुसार ऋषियों की देशनाओं में विविधता आ जाती है, क्योंकि ये ऋषि भवव्याधि के वैद्य हैं एवं रूग्न व्यक्ति की आवश्यकताओं के अनुरूप प्रौषधियों का विधान करते हैं । इन विशेष विशेष धर्मों के अतिरिक्त एक एक सर्वजनसाधारण धर्म की कल्पना भी भारतीय चिन्तकों ने की है, जो निम्नोक्त उद्गार व्यक्त होती हैश्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥
धर्म के नीचोड़ को सुनो एवं सुनकर श्रवधारित करो। जो आचरण अपने लिए
प्रतिकूल प्रतीत हो वैसा आचरण दूसरे के प्रति नहीं करना चाहिए । ईश्वर तत्त्व की मान्यता के बारे में भी भारतीय धर्मो में सभी भारतीय धर्म ईश्वरवादी नहीं है । भक्त अपने भगवान् को बना लेता है । पर पुनर्जन्म, मोक्ष, पाप, पुण्य जैसे तत्व हमारे अपनी निगूढतम अनुभूति में ऋषि एक अद्वितीय तत्त्व का दर्शन करते हैं- एकं सद्धिप्रा बहुधा वदन्ति । इसी प्रकार शिव, ब्रह्म, बुद्ध, ईश्वर, अर्हतु, कर्म एवं विष्णु जैसे तत्त्वों में भारतीय दार्शनिक कोई भिन्नता नहीं देखते । वे स्पष्ट कहते हैं
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यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्म ेति वेदान्तिनो, बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्त्तेति नैयायिकाः । अर्हन्नित्यय जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसका, सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ॥
जिसकी शैव लोग शिव के रूप में उपासना करते हैं, जिसे वेदान्ती ब्रह्मतत्त्व कहते हैं जिसे बौद्ध बुद्ध की संज्ञा देते हैं, प्रमाण- शास्त्र में निष्णात नैयायिक जिसे जगत्कर्ता ईश्वर अनुरागी जिसे अर्हतु कहते हैं, कर्मकाण्डी मीमांसक जिसे प्रभु भगवान् हरि आपको वाञ्छित फल प्रदान करें । अपने उपास्य हरि के रूप को ही दूसरे धर्मों के उपास्य देवों भारती का भक्त सभी देवियों में अपनी उपास्या देवी को
के रूप में देखते हैं, जैन शासन के कर्म कहते हैं, वह तीन लोकों के जिस तरह एक विष्णु भक्त ने में देखा, उसी तरह माता ही देखता है । वह कहता है
विविधता देखी जाती है ।
अपनी कल्पना के अनुरूप सभी धर्मो को मान्य हैं ।
तारा त्वं सुगमतागमे भगवती वज्रा कौलिकशासने जिनमते
गौरीति शैवागमे पद्मावती विश्रुता ।
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