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धर्म के मूल अनुभूति एवं तर्क *
देवकान्त बरुश्रा
पण्डितगण और बन्धुगण,
मैं आपसे माफी माँगना चाहता हूँ कि मेरी जो हिन्दी होगी, वह चलती हिन्दी होगी । लेकिन मेरा ख्याल है, मेरी चलती हिन्दी प्राप प्राकृत का अर्थ ही है प्रकृति या स्वाभाविकता से सम्बद्ध | इसलिए प्राकृत भाषा का अर्थ हुमा जनगण द्वारा व्यवहृत ऐसी स्वाभाविक भाषा, जो साधारण जनता के लिए कथ्य और बोधगम्य - दोनों हो । प्राकृत भाषा के तात्पर्य को व्यक्त करने वाली यह उक्ति प्रसिद्ध है - " प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धमिति प्राकृतम्” अथवा "प्राकृतजनानां भाषा प्राकृतम्” । रुद्रट की काव्यालंकारसूत्र - वृत्ति में नमिसाधु ने यही मत व्यक्त किया है । यों वैाकरणों' और अलंकारिकों ने 'प्रकृति' और 'प्राकृत' से कई खींचतान वाले आशय निकाले हैं । जैसे, 'सिद्ध हेमचन्द्र' में कहा गया है-" प्रकृतिः संस्कृतम् तत्र भवम् तत आगतम् वा प्राकृतम्” और मार्कण्डेय के 'प्राकृत सर्वस्व' में कहा गया है--" प्रकृति: संस्कृतं तत्र भवम् प्राकृतमुच्यते” । किन्तु वैयाकरणों और प्रलंकारिकों द्वारा कही गई ये बातें ऐतिहासिक और भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से ग्राह्म नहीं हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से तो प्राकृत प्रकाश के लेखक वररुचि की ही व्याख्या ग्राह्य है, जिसके मुताबिक संस्कृत का विकृत रूप ही प्राकृत है । इसलिए संस्कृत का जो नियम है, उसका प्राकृत में लागू होना अनुचित है, क्योंकि संस्कृत से जो अशुद्ध हुआ, वही रूप प्राकृत है । प्राकृत भाषा में जो लोग व्याकरण लगाते हैं, वे मेरे ख्याल में जबर्दस्ती करते हैं । त्रिविक्रम ने भी अपने व्याकरण में देश्य भाषात्रों को व्याकरण के बाहर ही रखा था ।
वह संस्कृत पण्डितों की हिन्दी नहीं होगो । लोग समझ लेंगे | हिन्दी 'प्राकृत' भाषा है ।
* विद्वद्गोष्ठी, ८ अप्रील १९७१ में माननीय श्री बरूआ, राज्यपाल, बिहार द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण ।
१. वैयाकरणों द्वारा प्रस्तुत की गई व्याख्याओं के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
(क) 'प्रकृतेः संस्कृताद् आगतम् प्राकृतम् । - सिंहदेवगण, वाग्मटालंकार की टीका । (ख) 'संस्कृतरूपाया: प्रकृतेः उत्पन्नत्वात् प्राकृतम् । - रामचन्द्र तर्कवागीश कृत aroraर्श-टीका ।
( ग ) ' प्रकृतेरागतं प्राकृतम् । प्रकृतिः संस्कृतम् ।' - धनिक, दशरूप की टीका ।
(घ) 'प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्र भवत्वात् प्राकृतं स्मृतम् । - प्राकृतचन्द्रिका ( पीटर्सन की तीसरी रिपोर्ट में उद्धृत ) ।
२. प्राकृत प्रकाश प्राकृत भाषा का
पुराना ग्रन्थ है । इस पर भामह, वसन्तराज, सदानन्द
इत्यादि की कई प्रसिद्ध टीकाएं मिलती हैं ।
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३. त्रिविक्रम प्रादित्यवमंन के पौत्र और मल्लिनाथ के पुत्र थे । इन्होंने हेमचन्द्र को श्राधार
मानकर प्राकृत व्याकरण की टीका लिखी ।
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