Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र - इक्कीसवां अध्ययन
और पाप का, णिरंजणे (णिरंगणे ) - निरञ्जन - कर्ममल से रहित, संयम में निश्चल, विप्पमुक्केविमुक्त होकर, तरित्ता - तैर कर समुदं समुद्र को, महाभवोघं विशाल संसार प्रवाह को, अपुणागमं - पुनरागमन रहित - जहां से पुनः संसार में आगमन नहीं होता ऐसे मोक्ष को, गए - प्राप्त हुए।
भावार्थ - दोनों प्रकार के कर्मों का अर्थात् घाती और अघाती कर्मों का तथा पुण्य और पाप का सर्वथा क्षय करके निरञ्जन ( कर्ममल से रहित अथवा संयम में निश्चल अर्थात् शैलेशी अवस्था को प्राप्त हुआ) बाह्य और आभ्यन्तर सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त होकर तथा महाभव रूपी समुद्र को तिर कर समुद्रपाल मुनि पुनरागमन रहित (जहाँ जाकर लौटना नहीं पड़े ऐसे स्थान ) मोक्ष को प्राप्त हुए। ऐसा मैं कहता हूँ ।
विवेचन उपर्युक्त गाथा क्रं. ११ से २२ तक में समुद्रपाल द्वारा दीक्षित होने के बाद किये गए आदर्श साधु जीवन के आचरण का वर्णन किया गया है। समुद्रपाल मुनि ने अपनी संयत चर्या से यह बतला दिया कि आदर्श साधुओं का जीवन कैसा होता है ?
गाथा क्रमांक २३ - २४ में स्पष्ट किया गया है कि महर्षि समुद्रपाल मोक्ष पद के योग्य कैसे बने? कर्मों का आत्यन्तिक क्षय, मोक्ष है। संसार हेतुभूत कर्म रूप बीज जिसके समूल नष्ट हो जाते हैं वह पुनः संसार में जन्म-मरण नहीं करता है। कहा भी है
दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नांकुरः ।
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• कर्म बीजे तथा दग्धे न प्ररोहति भवांकुरः ॥
- जैसे बीज के जल जाने पर उससे अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार कर्म बीज
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के दग्ध. ( नष्ट) हो जाने पर फिर जन्म मरण संसार रूपी अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती है। समुद्रपाल मुनि ने भी तप संयम की निर्मल आराधना कर आठ कर्मों को क्षय किया और सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो गये ।
॥ समुद्रपालीय नामक इक्कीसवाँ अध्ययन समाप्त ॥
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