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२. 'अण्णउत्थियाणि परिग्गहियाणि अरिहंतचेझ्याई' का अर्थ स्वयं टीकाकार श्रीमद् अभयदेवजी सूरि ने ‘अरिहन्त जिन प्रतिमा' किया है । पर प्रस्तुत प्रसंग में हमने चेइय का अर्थ 'जैन साधु' किया है। श्री उववाई सूत्र अनुवाद में श्री उमेशचन्दजी म. सा. 'अणु' ने भी यही अर्थ किया है - अम्बड़ वर्णन में ।
३. 'हिरण्णकोडीओ' में हिरण्ण का अर्थ 'स्वर्णमुद्रा' किया है। जहाँ हिरण्णसुवण्ण शब्द साथ आते हैं, वहाँ चांदी एवं सोना अर्थ भी किया जाता है तथा बिना घड़ा एवं घड़ा हुआ सोना भी किया जाता है।
अतिचार, कर्मादान
इसी प्रकार श्रावक व्याख्या, पांच सौ हल का अर्थ, आनंदजी का छठा व्रत आदि विषयों का यथामति खुलासा करने का यत्न किया है। ऐसा करने में दूसरों की हीलना की दृष्टि की अपेक्षा उचित अर्थ के महत्त्व की पुष्टि का ही ध्यान रखा है, तथा किसी भूल की ओर इंगित किए जाने वालों का अनुग्रह मान कर परिमार्जन की भावना रखूंगा ।
मुझे आशा है, मेरा यह श्रम पाठकं स्वाध्याय, चिन्तन-मनन व उन्मुक्त प्रतिक्रयाएं व्यक्त कर सार्थक करेंगे। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस कार्य में जिन-जिन का सहयोग रहा उनका हार्दिक आभार मानना सर्वथा संगत ही है, विशेष रूप से परिजनों का, जिन्होंने मुझे समय का अवकाश प्रधान किया । परम श्रद्धेय दानवीर सेठ श्रीमान् किसनलालजी पृथ्वीराजजी सा. मालू की सत्प्रेरणा भी विस्मृत नहीं की जा सकती।
२८ जनवरी १६७७ ब्रह्मपुरी, सिरियारी
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शुभाभिलाषी वी. घीसूलाल पितलिया
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