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श्री. घीसूलालजी नवयुवक हैं, शिक्षित हैं, धर्मप्रिय हैं, जिज्ञासु हैं और तत्त्वचिंतक हैं। उनका धर्मोत्साह देख कर प्रसन्नता होती है। सीधा-सादा साधनामय जीवन है। 'अंतकृत विवेचन' इनकी प्रथम कृति है। इसे देख कर ही मैंने श्री पितलियाजी से उपासकदशांग सूत्र का अनुवाद करने का कहा था। परिणाम पाठकों के सामने हैं।
इसके प्रकाशन का व्यय धर्ममूर्ति सुश्रावक श्रीमान् सेठ किशनलालजी पृथ्वीराजजी गणेशमलजी सा. मालू प्रति १०००, श्रीमान् सेठ पीराजी छगनलालजी सा. झाब प्रति १०००
और सुश्राविका श्रीमती कमलाबाई बोहरा धर्मपत्नी श्रीमान् सेठ मिलापचन्दजी सा मंडया निवासी ने प्रति १००० का दिया है। __ परिशिष्ट में भगवती सूत्र स्थित तुंगिका नगरी के श्रावकों की भव्यता का वर्णन है। वह भी पाठकों के जानने योग्य समझ कर मैंने लिख कर परिशिष्ट में जोड़ दिया है और श्री कामदेवजी की सज्झाय भी जो भावोल्लास बढ़ाने वाली है, इसमें स्थान दिया है। आशा है कि पाठक इनसे लाभान्वित होंगे।
इसमें मुझे आनन्दजी के व्रतों और कर्मादानादि विषय में भी लिखना था, परन्तु उतना अवकाश नहीं होने के कारण छोड़ दिया। ___आशा है कि धर्मप्रिय पाठक इसका मनन पूर्वक स्वाध्याय कर भ० महावीर प्रभु के उन आदर्श श्रमणोपासकों की धर्मश्रद्धा, धर्मसाधना और धर्म में अटूट आस्था के गुणों को धारण कर अपनी आत्मा को उन्नत करेंगे। उनकी ऋद्धि सम्पत्ति की ओर देखने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि जिनधर्म प्राप्ति के पश्चात् उन गृहस्थ साधकों ने पौद्गलिक सम्पत्ति और इन्द्रिय भोग पर अंकुश लगा दिया था और १४ वर्ष पश्चात् तो सर्वथा त्याग कर के साधनामय जीवन व्यतीत किया था। इसी से वे एक भवावतारी हुए थे। हमारा ध्येय तो होना चाहिए सर्वत्यागी निर्ग्रन्थ बनने का, परन्तु उतनी शक्ति नहीं हो, तो देशविरत श्रमणोपासक हो कर अधिकाधिक धर्म साधना अवश्य ही करें।
सर्वप्रथम यह सावधानी तो रखनी ही चाहिये कि लौकिक प्रचारकों के दूषित प्रचार के प्रभाव से अपने को बचाये रखें। जब भी वैसे विचार मन में उदित हों, तो इस सूत्र में वर्णित आनंद-कामदेवादि उपासकों के आदर्श का अवलम्बन ले कर लौकिक विचारों को नष्ट कर दें, तभी सुरक्षित रह कर मुक्ति के निकट हो सकेंगे।
सैलाना वैशाख शु० १ विक्रम सं० २०३४
- रतनलाल डोशी वीर संवत् २५०३ दिनांक २६-४-१९७७
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