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प्रथम अध्ययन - श्रमणोपासक आनंद - व्रतों के अतिचार
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__सामायिक में नहीं कहने योग्य वचन कहने से वचन दुष्प्रणिधान अतिचार लगता है। वैसे तो बिना सामायिक किए हुए श्रावक को भी वचन विवेक रखना चाहिए पर सामायिक लेने के बाद तो उसकी वचन गुप्ति और भाषा समिति होनी ही चाहिए। राग द्वेष बढ़ाने वाले, कषायों को उग्र करने वाले, नो-कषाय बढ़ाने वाले और कलहकारी वचनावलियां वचन-दुष्प्रणिधान में है। ___ वास्तव में तो सामायिक में नया ज्ञान सीखना चाहिए, शास्त्रों की स्वाध्याय तथा थोक ज्ञान का पारायण होना चाहिए। इसके अलावा ज्ञान बढ़ाने के लिए धार्मिक प्रश्नोत्तर करना - सुनना भी अच्छा ही है। ___ पांचों इंद्रियों सहित काया की प्रवृत्ति के सावध योग काय-दुष्प्रणिधान में शामिल है। अनुकूल शब्द, रूप, गंध, रस एवं स्पर्श में आसक्त होना, प्रतिकूल काम-गुणों से द्वेष करना, बिना पूंजे रात्रि में चलना, मच्छर डांस आदि काट खाते हों तो बिना पूंजे खाज खुजालना, दिन में बिना देखे चलना, बिना प्रयोजन इधर-उधर आना-जाना - ये सभी काय-दुष्प्रणिधान में गिने गये हैं। सामायिक में काया को कछुए की भांति गोपन करके स्थिर आसन से बैठना चाहिए। सामायिक में सांसारिक पत्र पत्रिकाएं पढ़ना, बाजार की ओर दृष्टि लगाकर आते जाते को देखना ये सभी काय-दुष्प्रणिधान के अंतर्गत हैं। ___सामायिक की स्मृति ही नहीं रहे - मन कहीं जा रहा है, वचनों से अनर्गल प्रलाप चल रहा है, कायिक चंचलता-चपलता जारी है - ये सभी सामायिक को भूल जाने जैसे कार्य इस अतिचार में आते हैं। सामायिक में क्या करना, क्या नहीं करना - यह ध्यान ही न रहे, नहीं करने योग्य प्रवृत्तियाँ होती हों, करने योग्य प्रवृत्तियाँ नहीं होती हों-यह सामायिक की याद को भूलाने जैसे अतिचार के विषय हैं। ..
सामायिक करने वाले को द्रव्य-शुद्धि, क्षेत्र-शुद्धि, काल-शुद्धि और भाव-शुद्धि - इन चार प्रकार की शुद्धियों का ध्यान रखना चाहिये। पांचों अतिचार मन, वचन, काया के दुष्ट योगों को टालने के लिए है। सामायिक लेने का समय याद न रखना 'सइ अकरणया' है तथा समय पूर्व सामायिक पारना 'अणवट्ठियस्स करणया' है अतः भाव शुद्धि की तरफ ध्यान देना अत्यंत आवश्यक है।
देशावगासिक व्रत के अतिचार तयाणंतरं च णं देसावगासियस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा ण
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