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श्री उपासकदशांग सूत्र
कोलालभंडं अवहरइ वा जाव परिट्ठवेइ वा, अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ, णो वा तुमं तं पुरिसं आओसेजसि वा हणेजसि वा जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेजसि, जइ णत्थि उट्ठाणे इ वा जाव परक्कमे इ वा णियया सव्वभावा। अहं णं तुम्भं केइ पुरिसे वायाहयं जाव परिट्ठवेइ वा, अग्गिमित्ताए वा जाव विहरइ, तुमं वा तं पुरिसं आओसेसि वा जाव ववरोवेसि, तो जं वदसि णत्थि उट्ठाणे इ वा जाव णियया सव्वभावा तं ते मिच्छा।
कठिन शब्दार्थ - आओसेजसि - फटकारते हो, हणिजसि - मारते हो। ...
भावार्थ - तब भगवान् ने फरमाया - "हे सकडालपुत्र! तुम्हारे मतानुसार न तो कोई पुरुष तुम्हारे कच्चे-पके बरतन चुराता यावत् फेंकता है और न कोई अग्निमित्रा भार्या के साथ भोग ही भोगता है। इसलिये तुम उस पुरुष पर न तो आक्रोश करोगे यावत् प्राणरहित नहीं करोगे। यदि उत्थान यावत् पुरुषकार-पराक्रम नहीं है, सभी भाव नियत हैं, जो होना होता है. वही होता है, तो तुम बरतन चुराने वाले यावत् फैंकने वाले को तथा अग्निमित्रा भार्या के साथ कुकर्म करने वाले को आक्रोश यावत् प्राण-दण्ड क्यों दोगे? अतः उत्थान यावत् पुरुषकारपराक्रम नहीं मानने का तुम्हारा मत मिथ्या है।"
एत्थ णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए संबुद्धे। भावार्थ - भगवान् का युक्तियुक्त वचन सुन कर सकडालंपुत्र को बोध प्राप्त हुआ। सकडालपुत्र श्रमणोपासक बना
(५१) तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी - 'इच्छामि णं भंते! तुम्भं अंतिए धम्म णिसामेत्तए।' ___ तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तीसे य जाव धम्म परिकहेइ।
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