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आठवां अध्ययन - श्रमणोपासक महाशतक
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दुवालसण्हं भारियाणं कोलघरिया एगमेगा हिरण्णकोडी, एगमेगे य वए दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था। ___ कठिन शब्दार्थ - कोलघरियाओ - पीहर से, दुवालसण्हं - बारह, भारियाणं - पत्नियों, एगमेगा - एक।
भावार्थ - उन महाशतकजी के रेवती प्रमुख तेरह पत्नियाँ थीं। रेवती के पीहर वालों ने रेवती को प्रीतिदान में आठ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ एवं गायों के आठ वज्र दिए थे। शेष बारह भार्याओं के पीहर वालों ने एक-एक करोड़ स्वर्ण-मुद्रा तथा दस हजार गायों का एक-एक वज्र दिया था।
(६१) तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। परिसा णिग्गया। जहा आणंदो 'तहाः णिग्गच्छइ, तहेव सावयधम्म पडिवजइ। णवरं अट्ठ हिरण्णकोडीओ
सकंसाओ उच्चारेइ, अट्ठ वया, रेवईपामोक्खाहिं तेरसहिं भारियाहिं अवसेसं मेहुणविहिं पच्चक्खाइ, सेसं सव्वं तहेव। इमं च णं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-कल्लाकल्लिं च णं कप्पड़ मे बे दोणियाए कंसपाईए हिरण्णभरियाए संववहरित्तए। -- कठिन शब्दार्थ - रेवइपामोक्खाहिं - रेवती प्रमुख, दोणियाए - द्रोण, कंसपाईए - कांस्य पात्र, संववहरित्तए - सीमा रखूगा। ___ भावार्थ - उस समय राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी का पदार्पण हुआ। परिषद् धर्मकथा सुनने के लिए गई, आनन्दजी की भाँति महाशतकजी ने श्रावक के बारह व्रत स्वीकार किए। विशेष यह कि आठ करोड़ भण्डार में, आठ करोड़ व्यापार में और आठ करोड़ की घर-बिखरी। गौओं के आठ वज्र का परिमाण किया। रेवती आदि तेरह पत्नियों के अतिरिक्त शेष मैथुन का प्रत्याख्यान किया तथा यह अभिग्रह लिया कि “मैं कल से नित्य दो द्रोण कांस्यपात्र भरे (एक द्रोण सोलह सेर के लगभग होता है, इस प्रकार बत्तीस सेर) सोने से अधिक का व्यापार नहीं करूँगा।"
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