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— आठवां अध्ययन - श्रमणोपासक महाशतक - अवधिज्ञान का प्रादुर्भाव १५६ **-*-m-10-w-8-0-0-0-08-28-02-08-28-12-2-*-*-*-*-*-**--08-28-08-28-22-22-22-28--08-28-34-28-28-08-28-08-22 खलु अहं इमेणं उरालेणं जहा आणंदो तहेव अपच्छिममारणंतियसंलेहणाझूसियसरीरे भत्तपाणपडियाइक्खिए कालं अणवकंखमाणे विहरइ।
भावार्थ - महाशतकजी ने प्रथम उपासक-प्रतिमा की यथावत् आराधना की। इस प्रकार ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं का सम्यग् पालन किया। कठोर तपश्चर्या के कारण महाशतक का शरीर अस्थि और शिराओं का जाल मात्र रह गया। एक बार धर्म जागरण करते हुए उन्हें विचार हुआ कि अब शरीर बहुत कृश हो गया है, अतः मुझे अपश्चिममारणांतिक संलेखना-संथारा उचित है। उन्होंने आनन्द श्रावक की तरह संथारा कर लिया।
अवधिज्ञान का प्रादुर्भाव .. तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स सुभेणं अज्झवसाणेणं जाव खओवसमेणं ओहिणाणे समुप्पण्णे। पुरथिमेणं लवणसमुद्दे जोयणसाहस्सियं खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्खिणेणं पचत्थिमेणं, उत्तरेणं जाव चुल्लहिमवंतं वासहरपव्वयं जाणइ पासइ, अहे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुयं णरयं चउरासीइवाससहस्सट्ठियं जाणइ पासइ।
कठिन शब्दार्थ - ओहिणाणे - अवधिज्ञान, चउरासीइवाससहस्सट्ठियं - चौरासी हजार वर्ष की स्थिति।
भावार्थ - संथारे में शुभ अध्यवसायों और तथारूप कर्म का क्षयोपशम होने से महाशतकजी को अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ। इससे वे पूर्व, दक्षिण और उत्तर दिशा में लवण-समुद्र का एक हजार योजन का क्षेत्र जानने-देखने लगे, उत्तर-दिशा में चुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र जानने-देखने लगे। अधो-दिशा में वे चौरासी हजार वर्ष स्थिति वाले नैरकियों के निवास स्थान तक का प्रथम नरक का लोलुयच्चुय नरकावास देखने लगे।
तू दुःखी होकर नरक में जाएगी
तए णं सा रेवई गाहावइणी अण्णया कयाइ मत्ता जाव उत्तरिजयं विकद्दमाणी विकड्डमाणी जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए समणोवासए तेणेव
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