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श्री उपासकदशांग सूत्र
आत्मतत्त्व, आत्मवाद, आत्मा का स्वरूप, आत्मा की वैभाविक और स्वाभाविक दशा का ज्ञान, आत्मा को अनात्म द्रव्य से संबद्ध करने वाले भावों और आचरणों एवं मुक्त होने के उपाय, मुक्तात्मा का स्वरूप आदि के वे तलस्पर्शी ज्ञाता थे। हेय-ज्ञेय और उपादेय का विवेक करने में निपुण थे।
असहेज देवासुर....... वे श्रमणोपासक सुख-दुःख को अपने कर्मोदय का परिणाम मान कर शांतिपूर्वक सहन करते थे। परन्तु किसी देव-दानव की सहायता की इच्छा भी नहीं करते थे। वे अपने धर्म में इतने दृढ़ थे कि उन्हें देव-दानवादि भी चलित नहीं कर सकते थे।
णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिया - निर्ग्रन्थ-प्रवचन - जिनेश्वर भगवंत के बताये हुए सिद्धांत में दृढ़ श्रद्धावान् थे। उनके हृदय में सिद्धान्त के प्रति किसी प्रकार की शंका नहीं थी। वे जिनधर्म के अतिरिक्त अन्य किसी भी धर्म की आकांक्षा नहीं रखते थे, क्योंकि निर्ग्रन्थ प्रवचन में उनकी पूर्ण श्रद्धा थी। धर्माराधन के फल में उन्हें तनिक भी संदेह नहीं था।
लद्धट्ठा गहियट्ठा ....... उन्होंने तत्त्वों का अर्थ प्राप्त कर लिया था। जिज्ञासा उत्पन्न होने पर भगवान् अथवा सर्वश्रुत या बहुश्रुत गीतार्थ से पूछ कर निश्चय किया था। सिद्धांत के अर्थ को भली प्रकार समझ कर धारण कर लिया था। उन्होंने तत्त्वों का रहस्यज्ञान प्राप्त कर लिया था।
अट्ठिमिंज पेमाणुसगरत्ता - उन एक भवावतारी श्रमणोपासकों की धर्मश्रद्धा इतनी बलवती थी कि उनके आत्म-प्रदेशों में धर्म-प्रेम गाढ़ से गाढ़तर और गाढ़तम हो गया था। उसके प्रभाव से उनकी हड्डियाँ और मज्जा भी उस प्रशस्त राग से रंग गई थी। भवाभिनन्दियों
और पुद्गल राग-रत्त जीवों के तो अप्रशस्त राग से आत्मा और अस्थियाँ मैली-कुचेली बनी रहती हैं। जब वह मैल कम होता है तब आत्मा में धर्मप्रेम जागता है। ज्यों-ज्यों धर्म-राग बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों कालिमा हट कर प्रशस्त शुभ रंग चढ़ता है, फिर एक समय ऐसा भी आता है कि सभी राग-रंग उड़ कर विराग-दशा हो जाती है। यह उस नष्ट होती हुई कर्मकालिमा की सुधरी हुई अवस्था है, जिसमें दुःखद-परिणाम वाली कषैली प्रकृति धुल कर स्वच्छ बनाती है और उसके साथ शुभरंग का योग होता है। फिर कालिमा का अंश मिटा कि शुभ भी साथ ही मिट कर आत्म-द्रव्य शुद्ध हो जाता है।
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