Book Title: Upasakdashang Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 206
________________ परिशिष्ट १७७ अयमाउसो! णिग्गंथे पावयणे....... उनके धर्म-राग की उत्कृष्टता का प्रमाण यह है कि जब साधर्मीबन्धु परस्पर मिलते अथवा किसी के साथ उनकी धर्म-चर्चा होती, तो उनके हृदय के अन्तस्तल से यही स्वर निकलता - "आयुष्मन्! यदि संसार में कोई सारभूत अर्थ है, तो एकमात्र निर्ग्रन्थ-प्रवचन-जिनधर्म ही है। यही परम अर्थ - उत्कृष्ट लाभ है। शेष सभी (धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब-परिवार एवं अन्य मत) अनर्थ-दुःखदायक हैं। उसियफलिहा अवंगुयदुवारा - वे उदार थे, दाता थे। उनके घर के द्वार याचकों के लिए खुले रहते थे। पाखण्डियों एवं कुप्रावचनिकों से उन्हें किसी प्रकार का भय नहीं था। चियत्तंतेउरघरप्पवेसा. - जनता में उनकी प्रतीति ऐसी थी कि वे कार्यवश किसी के घर में अथवा राज के अन्तःपुर में प्रवेश करते, तो जनता को उनके चरित्र में किसी प्रकार की शंका नहीं होती। वे अपने स्वदार-संतोष व्रत में दृढ़ थे और जनता के विश्वासपात्र थे। ___वे अनेक प्रकार के त्याग-प्रत्याख्यान, अणुव्रत-गुणव्रत, सामायिक, पौषधोपवास और अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को प्रतिपूर्ण पौषध व्रत का पालन करते थे और . श्रमण-निर्ग्रन्थ - साधु-साध्वी को अचित्त निर्दोष आहार-पानी, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, पीढ-फलक स्थान-संस्तारक औषध-भेषज आदि भक्तिपूर्वक प्रतिलाभित करते रहते थे और यथाशक्ति तप करते हुए अपनी आत्मा को पवित्र करते रहते थे। ___ भगवान् के इन श्रमणोपासकों का चरित्र इस उपासकदशांग सूत्र के साथ जोड़ने का यही आशय है कि हम उनके चरित्र का मनन करें और उनका अवलम्बन लेकर अपना जीवन सुधारें। अन्य विचारों और इधर-उधर देखना छोड़ कर अपने इस आदर्श को ही अपनावेंगे तो हमारी नय्या पार हो जायेगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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